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बारूद

 

सिन्धी कहानी

बारूद                                                                   

मूल: हरी मोटवाणी

अनुवाद: देवी नागरानी

     अहमदाबाद में एक अदबी सेमिनार के दौरान मेरी उससे मुलाक़ात हुई थी जो आगे चलकर दोस्ती में बदल गई। उसे सिन्धी साहित्य पढ़ने का बड़ा शौक था, वह कूँज का लाइफ़ मेम्बर बन गया। (हरी मोटवानी ‘कूँज’ सिंधी त्रिमाही मैगज़ीन के सम्पादक रहे) 

साहित्य के साथ संगीत में भी अच्छी रुचि रही। ठुमरी उसकी मनपसंद रागिनी थी,  जिसे सुनते ही उसे नशा चढ़ जाता था - गर्दन झूमने लगती और हाथ सुर, लय, ताल पर थपकी देते रहते थे । कारोबार बैकिंग का था । ब्याज पर पैसे लेने और देने के सिलसिले में वह  अकसर मुम्बई आया-जाया करता था । जब भी मुम्बई आता मुझे फ़ोन करता, होटल में बुलाता । गुजरात में शराब पर पाबंदी थी, मुंबई में दिल खोलकर पीता और पिलाता था । 

एक दिन अहमदाबाद से फ़ोन किया- ‘हैलो काका ! मेरा एक काम करोगे?’ 

उसने मेरा लिखा हुआ सिंध का सफ़रनामा पढ़ा था । वहाँ सब मुझे काका कहकर बुलाते थे, तो यह भी ‘काका’ कहकर संबोधित करता । 

‘हाँ बताओ, क्या काम है ?’ 

‘मेरी बात ध्यान से सुनिए, सुन रहे हैं न ?’ 

‘हाँ, सुन रहा हूँ’ मैंने कहा । 

‘मुंबई में एक नई ठुमरी गायिका आई है, बहुत अच्छा गाती है, मैं उसे सुनना चाहता हूँ। पता लगाएँ कि वह कहाँ पर गाती है ?’ 

‘नाम तो बताओ ?’ 

‘नाम चम्पा बाई है ।’ 

‘चम्पा बाई ।’ मैंने अज़ब ज़ाहिर करते हुए कहा - ‘फिर तो वह ज़रूर किसी कोठे  पर गाती होगी ! तुम कोठे पर जाओगे ?’ 

‘काका, यह कौन-सी बड़ी बात है । मैं तो उसे सुनने कहीं भी जा सकता हूँ ।’ 

‘अच्छा, मैं पता लगाऊँगा ।’ 

     दूसरे दिन उसका फ़ोन फिर आया । मैंने चम्पा बाई का पता लगाया था । वह ऑपेरा हाउस के क़रीब एक कोठे पर मुजरा करती है, यह जानकारी मैंने उसे दी । 

     मैंने कुछ झिझकते हुए कहा - ‘मुझ जैसे सफ़ेदपोश के लिये कोठे पर चलना ठीक न होगा, तुम अकेले ही चले जाना !’ 

     वह ठहाका मारकर हँस पड़ा, मैं चुप रहा ! हँसते हुए उसने कहा - ‘काका आप भूल रहे हैं कि आप लेखक हैं, और लेखक कभी बूढ़ा नहीं होता। आपने ख़ुद एक बार हिन्दी के लेखक जैनेन्द्र कुमार का किस्सा सुनाया था जिसमें उसने कहा था कि – ‘शरीर बूढ़ा हुआ है तो क्या, दिल तो जवान है ! काका दिल से आप भी जवान है’ और उसने फ़ोन रख दिया । 

     शनिवार की रात को हम दोनों चम्पाबाई के कोठे पर गए । चहल-पहल शुरू हो गई थी । हम दोनों एक तरफ़ अपने स्थान पर बैठ गए । वाक़ई में कमाल की ठुमरी गाई। गाते-गाते जो हरकतें सुर से तरंगे बनकर निकल रही थीं, उससे बदन में सिहरन-सी होने लगी। कितने प्रशंसक  थे जो उस पर नोटों का सदका उतार रहे थे। 

     मेरा अहमदाबादी दोस्त शांतचित् बैठा रागिनी का आनंद लेता हुआ झूम रहा था । रात के दस बजे कुछ लोग चले गए, कुछ जाने की तैयारी में थे, पर हम बैठे रहे । सवा ग्यारह बजे चम्पाबाई ने हमारे सामने आकर सलाम किया । हम समझ गए कि वह इजाज़त चाहती है और साथ में बख़्शीस की तलबगार भी है । मेरे दोस्त ने ब्रीफ़केस खोला, एक लिफ़ाफ़ा चम्पाबाई की ओर बढ़ाया जो लेते हुए चम्पाबाई ने फिर झुककर सलाम किया और पलट कर चल दी। हम दोनों भी नीचे आए पर मैंने देखा मेरे दोस्त पर रागिनी के सुरों का का ख़ुमार छाया हुआ था। 

     उसके बाद आदतन यही होता रहा । वह जब भी मुंबई आता, शाम तक तमाम काम पूरे करता और रात को कोठे पर पहुँच जाता । रात को ग्यारह और बारह के बीच का लिया हुआ आनंद समेटकर वह लौटता । मुझे घर छोड़ता और खुद होटल चला जाता ।                                       दो-ढाई महीने न वह आया, न उसका फ़ोन। जाने कहाँ गायब हो गया ? मैं भी अपने कामों में व्यस्त था । एक दिन अचानक आ पहुँचा, और हम दोनों कोठे पहुँचे । मेरे दोस्त को देखकर चम्पाबाई की आँखें ऐसे चमक उठीं जैसे सूरज निकलने पर हर तरफ़ रोशनी छा गई हो।  मेरे दोस्त के चेहरे पर भी ऐसी ही आभा फैलने लगी, जैसे सुबह की ताज़ी सबा के लगने से मुरझाया फूल खिल उठता है ।                                                                          रात को जब इजाज़त लेनी चाही तो चंपाबाई ने मुस्कराते पूछा - ‘तबीयत नासाज़ है क्या ?’ ये सवाल मेरे दोस्त से किया गया और उसने जवाब देते हुए कहा - ‘यूरोप गया था।’ 

‘आप यूरोप गए थे ?’ उसको शायद विश्वास ही नहीं हो रहा था। 

‘बिज़निस ट्रिप थी ।’ 

‘ज़ाहिर है, वहाँ आपको हमारी याद कहाँ आई होगी?’ कहते हुए वह नज़ाकत के साथ सामने आकर बैठी । 

     मेरे दोस्त ने जेब से पर्स निकाला, मगर उसमें से नोट नहीं, एक फ़ोटो निकाला । मैं हैरानी के साथ उस तस्वीर को देखने लगा, वह रंगीन तस्वीर चम्पबाई की थी । 

     फ़ोटो चम्पाबाई को दिखाते हुए कहा - ‘आप हर वक़्त हमें याद हैं और पर्स में महफ़ूज़ हैं ।’ यह कहते हुए उसके होठों पर मुस्कान रक़्स करने लगी । चम्पाबाई यह देखकर एक तरफ़  तो हैरान हुई पर दूसरी ओर उसे गर्व महसूस हुआ। अचानक वह उठी, अन्दर गई और एक लिफ़ाफ़ा लेकर लौटी । लिफ़ाफ़े में दिया हुआ चेक मेरे दोस्त की ओर बढ़ाया । वह भी हैरान हो गया और कह उठा - ‘यह तो मेरा दिया हुआ चेक है । अभी तक कैश नहीं करवाया है ? यह मुझे दे दो, तो मैं तुम्हें कैश दूँ।’ 

     चम्पाबाई चेक वाला हाथ पीछे लेते हुए मुस्कराकर कह उठी -‘आप मेरी तस्वीर अपनी पर्स में रख सकते हैं तो क्या मैं आपका दिया हुआ चेक अपने पास संभाल कर नहीं रख सकती ?’ 

     मेरा दोस्त ला-जवाब हो गया । शायद मन में खुश भी था । फिर चम्पाबाई की तरफ़ देखते हुए कहा - ‘फ़ोटो महज़ फ़ोटो है यादगार को लिये, पर यह चेक है जिससे तुम्हें पैसे मिलेंगे !’ 

     चम्पाबाई का चेहरा उतर गया, उदास स्वर में बोली - ‘यह सच है कि हम पैसों के लिये नाचते-गाते हैं, लेकिन हमारा दिल भी चाहता है कि हम आपकी दी हुई सौगातें संभाल कर रखें,  जैसे आपने मेरी फ़ोटो रखी है ।’ इतना कहकर वह बिना जवाब सुने अन्दर चली गई । हम दोनों भी नीचे आए। पर दोस्त के दिल पर चम्पाबाई के कथन का बोझ था, या उस चेक का उसके पास महफूज़ रहने का फ़ख्र था,  मैं कह नहीं सकता !! 

     कितने मौसम बदले, गर्मी आई, सर्दी आई, बहार आई, पतझड़ आकर लौट गई पर मेरा दोस्त मुम्बई नहीं आया । इस बीच मैं हांग-कांग का सफ़र करके लौट आया, जिसकी रिपोर्ट मैग़जीन में छपी। उसका एक परचा इस रिमार्क के साथ लौट आया कि ‘आदमी मौजूद नहीं।’  मैं हैरान था कि आख़िर वह गया कहाँ ? एक साल से ज़्यादा बीत गया । अचानक वह एक दिन आकर धमका। ताजमहल होटल से फ़ोन किया । फौरन आओ।  फ़ोन नम्बर और रूम नम्बर भी बताया । मैं एक घंटे में उसके पास पहुँचा। वह इन्तज़ार कर रहा था । पहले होटल में अच्छा  नाश्ता किया, जूस पिया और फिर हाल-अहवाल दिया। 

     यूरोप की अगली ट्रिप में वह कुछ नई जान-पहचान बनाकर आया था । इस बार जब वह गया तो उन्होंने उसे अमरीकन आर्मी के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट लेकर दिया । अमरीका अफग़निस्तान के दहशतगारों पर हवाई हमले कर रहा था, और उन्हें जिन चीज़ों की ज़रूरत थीं वह मेरा यह दोस्त उन्हें सप्लाई करता रहा। उस कॉन्ट्रैक्ट में उसने लाखों डॉलर कमाए । जंग बन्द हुई तो कॉन्ट्रैक्ट भी पूरा हुआ। वह भारत लौट आया ।                                             पैसा बड़ा बलवान है । पहले वह मुम्बई आता तो सस्ते होटल में ठहरता, अब उस के पास डॉलर है, वह ताजमहल में आकर ठहरा है । होटल ने एअरकंडीशन कार का भी इन्तज़ाम किया हुआ था । मेरे दोस्त का पहनावा भी बहुत क़ीमती था । 

     उस रात वह मुझे कार में चम्पाबाई के कोठे पर ले गया। लेकिन पंछी उड़ गया था, पिंजरा खाली था । दोस्त को गहरा सदमा पहुँचा खाली-खाली निगाहों से वह मेरी तरफ़ देखने लगा ऐसे जैसे समुद्र की बीच भंवर में उसकी नौका टूट गई हो और वह उससे बचकर निकलने के लिये प्रयास कर रहा हो । 

     मैंने उसे दिलदारी देते हुए कहा – ‘मैं पता लगाता हूँ कि वह कहाँ गई है। वह भी आँखों में उम्मीद लिये मुझे देखता रहा और मुझे लगा कि सोने का पिंजरा भी अमूल्य है अगर उसमें से जीता जागता परिन्दा उड़ जाए। मैंने थोड़े पैसे ख़र्च करके चम्पाबाई का पता लगवाया। हमारी तलाश की मंज़िल एक ऐसे मोहल्ले में थी जहाँ कोई भी भला आदमी जाने से कतराता ! 

वह वैश्या-गाह था, रेड लाइट एरिया ! 

     कार को रोड पर पार्क करके हम दोनों चम्पाबाई को ढूँढ़ते-ढूँढते एक संकरी गली में दाख़िल हुए । मैं उस रास्ते से कई बार गुज़रा हूँ । मेरे साथी लक्ष्मण की प्रेस में जाने के लिये घर के पास से बस नं. ६५ और ६९ से सफ़र के बाद इसी रास्ते से जाना पड़ता था। 

     मेर दोस्त मायूस होता रहा । कहाँ अमरीका का ऐशो आराम और कहाँ मुम्बई की यह गंदी गली - रेड लाइट एरिया ! 

     हम चम्पाबाई की खोली पर पहुँचे जहाँ वह दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पर बैठी थी । गहरे मेक-अप के बावजूद वह कोई खास सुंदर नहीं लग रही थी । हमें देखकर उठ खड़ी हुई और मुस्कराई । 

     मेरे दोस्त की हालत सूखे पत्ते की तरह-निर्जीव ! चम्पा ने ही कहा - ‘मुझे ख़ातिरी थी कि एक दिन आप मुझे खोज लेंगे ।’ 

     हम दोनों अब भी चुप थे ।चम्पा ने इशारे से कहा - ‘आओ, अन्दर आओ ।’ वह ख़ुद थोड़ा भीतर होकर खड़ी रही । हम जैसे-तैसे अन्दर दाख़िल हुए । 

     मैंने देखा कि और खोलियों में बैठी, खड़ी, मोहन कल्पना (एक हस्ताक्षर सिंधी लेखक का नाम) की नज़र में, आधे घंटे की प्रेतात्माएँ हमको देखकर मुस्कराने लगीं । हमें मालदार रईस समझकर शायद वो चम्पा के नसीब पर रश्क कर रही थीं । 

‘कैसे ढूँढ़ लिया ?’ चम्पा ने पलंग पर बिछी चादर की सलवटें ठीक करते हुए पूछा। हमने कुछ नहीं कहा । 

‘ठहरो एक कुर्सी पड़ोस की खोली से ले आती हूँ ।’ 

‘नहीं हम यहाँ ठीक है ।’ मेरे दोस्त ने जैसे-तैसे मुँह खोला । 

‘पुरानी कोठी पर जाकर ख़बर लगी होगी।’ ‘हाँ ! किसी तरह आपका पता लगाया।’ मैंने उसे बताया ।                                             ‘बैठिए तो मैं आपको बताऊँ कि मैं यहाँ कैसे पहुँची? ’ 

     हमारे मन की भावना भी यही थी कि पता तो लगे कि वह किन हालात में यहाँ पहुँची है । उसने ख़ुद ही अपने बारे में बताया । 

‘ज़िन्दगी बड़ी बेरहम है। ’ चम्पा ने हमें पलंग पर बिठाया और ख़ुद हमारे सामने कुर्सी पर बैठ गई। मैंने सोचा यह ‘ज़िन्दगी’ लफ्ज़ भी अजीब है । कभी बेरहम, तो कभी मेहरबान! कभी कड़वी जैसे ज़हर तो कभी शहद जैसी मीठी । चम्पा की बातों से यही सच्चाई सामने आई ।     वह कहती रही: ‘गाती बजाती रही, आप जैसे क़द्रदान आए गए, ज़िन्दगी से कोई शिकायत न रही ।  एक दिन नगर सेवक आया, मेरे साथ रात गुज़ारने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की । मैंने उससे कहा ‘मैं वेश्या नहीं, गायिका हूँ।’                                                                      उसने हँसते हुए कहा - ‘एक ही बात है ।’                                                        मैंने कहा ‘एक बात नहीं है, तुम जिस्मफ़रोश हो, मैं राग गाकर बख़्शीश लेती हूँ !’ नाराज़  होकर तेवर बदलकर बोला - ‘राज़ी खुशी नहीं मानोगी तो ज़बरदस्ती करूँगा !’ 

इतना कहकर वह चुप हो गई, हमारे दिलों में कहीं बारूद सुलगने लगा। 

‘एक रात कोठी पर रेड करवाकर, ज़बरदस्ती मुझे अपने बंगले पर उठवाकर ले गया। मैंने उसे बहुत समझाया, उसके सामने बहुत गिड़गिड़ाई कि मैं एक कलाकार हूँ, गाती हूँ, आराधना करती हूँ’, पर वह क्रूरता से हँसने लगा जैसे मेरी खिल्ली उड़ा रहा हो । उसी रात, वहशी दरिंदे ने मुझे वेश्या बनाकर छोड़ा। 

     जैसे बारूद फटा, बड़ा धमाका हुआ, हमारा दिल भी जैसे पुर्ज़ा-पुर्ज़ा होकर बिखरा।  जब धमाका हुआ, धुआँ छटा तब हमने सुना चम्पाबाई कह रही थी - ‘उस दिन के बाद मैं ठुमरी गायिका नहीं रही, जिस्मफरोश रंडी हो गई हूँ !’ 

     उस दिन के पश्चात् मैंने अपने अहमदाबादी दोस्त को फिर कभी नहीं देखा । 


Hari-Motwani हरी मोटवाणी (१९२९-२००६) 

जन्म: लाड़काणो, सिंध (पाकिस्तान), उपन्यास - ६, कहानी सं. - ४, सफ़रनामा - २, आत्मकथा - १ और कई सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित । उनके ज़्यादातर पात्र अपने ही जीवन के प्रतिबिम्ब होते हैं और ईमानदारी से जीते-जूझते हैं । लगभग ५ दशक तक साहित्यिक पत्रिका ‘कूँज’ के संपादक । अन्य कई लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित करके अहम् रोल अदा किया । कई संस्थाओं के पुरस्कार एवं ‘अझो’ उपन्यास पर साहित्यिक अकादमी द्वारा सम्मानित (१९९५) 

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