Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बेटों की करतूत से

 

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बेटों की करतूत से, दोनों थे बेहाल

ऐन वक़्त बेटी बनी, मात-पिता की ढाल

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इतना नादाँ आदमी, नहीं समझता बात

खोज ख़बर ले और की, भूले अपनी जात

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डाली-डाली फिर रहे, भंवरे बन मासूम

कर लेंगे रस पान वो, कलियन को मालूम

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सुनती हूँ भीतर वही , मौन-मधुर पदचाप

ध्यानमग्न जब हो गई, सुना मधुर आलाप 

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ख़ामोशी की आड़ में, कोई करता बात

कैसे ‘देवी’ पूछती, उनसे अपनी जात

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ख़ून पसीना एक कर, बोए कितने बीज

भूखा फिर परिवार क्यों, जब भी आई तीज

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ठहरा पानी झील में, झलके उज्ज्वल बिम्ब

थिर तन, मन जब भी हुआ, हरि ही हो प्रतिबिंब 

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मचले जीवन आज भी, जीने की ले प्यास

खुली हवा संग मन करे, देवी जब-जब रास

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कोयल की उस कूक ने, कहा “आ गई भोर"

नाच उठा तब झूमकर, मेरे मन का मोर

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अश्कों के सैलाब में, आज गया ख़ुद डूब

साहिल को ढूँढूं कहाँ, ख़ुद डूबा जो खूब

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तू तू, मैं मैं, का हुआ, हर महफ़िल में शोर

ऊंचा बोले हैं वही, जिनके मन में चोर

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था पूनम का चाँद वह, जिससे की कल बात

चार दिनन की चांदनी, फिर अंधियारी रात

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मृदुल-मृदुल महका सुमन, गूंथा छंद का हार

सजदे में सिर झुक गया, देख सृजन संसार

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है निर्धन की झोपड़ी, जिसमें चारों धाम

महलों में क्यों ढूँढता, प्रेमी, राधेश्याम?

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बिन शब्दों के गूँजती, सुनो वही आवाज़

घट में ‘देवी’ बज रहा, आठ पहर जो साज़

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देखो जर्जर नाव है, तेज़ सलिल की धार

बीच भँवर में बह रही, कैसे होगी पार ?

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खंजर घोंपे पीठ में, कायरता का काम

एक करे नादान तो, दूजा हो बदनाम

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धुंधली धुंधली है नज़र, नूरानी है नूर

जितना आगे जाऊँ मैं, पाऊं उतना दूर

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चोर सिपाही घट बसे, अन्दर थानेदार

मन अपना ये बावला, बनता चौकीदार

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ईद मनाओ रोज यूँ, मिलकर ख़ुद से मीत

जाने कब मौक़ा मिले, गिरे जो अबके भीत?

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मन में नहीं उमंग तो, फीके है सब राग

दुनिया में बजते रहें, चाहे चंग-रबाब

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