अपने ही दर्द के आईने में हर ग़म ज़दा अक्स देखता हुआ "हर लम्हा और"
अपनी अपनी है सब की मजबूरी/ दिल किसी का बुरा नहीं होता
अपने ही अक्स से बतियाता हुआ ‘एक दूसरा मैं’ जो खुद से रूबरू हुआ है. अछूते अहसास सदा से मन को छू लेने में कामयाब रहे है और कथ्य के साथ अगर शिल्प भी सहकार दे, फिर तो भव्य भवन का निर्माण होना लाज़मी है. अपने आपको जानना, पहचानना और अपने अंदर की समस्त कमज़ोरियों एवं ताक़तों से वाकिफ़ होना आज की अनिवार्यता है। पर उन्हें स्वीकारना श्रेष्ठतम है। शायद यह मुश्किल काम आसानी से कर पाने वाले बशर श्री राज़दान राज जैसे होते हैं, जो श्री इब्राहीम 'अश्क' के अनुसार 'मिट्टी की ख़ुशबू से जुड़े़ हुए एक ऐसे इन्सान है जिनका दिल मुहब्बत से धड़कता भी है और दर्द में आँसू बनकर छलकता भी है।'
हाँ यह दर्द ही तो है जो मानव मन की पीड़ा का मंथन करता है और फिर मंथन का फल तो हम सभी को चखना पड़ता है. कौन है जो बच पाया है ? कौन है जो वंचित रह गया है इस अनुभूति के ज़ायके से ? और जब दर्द अंगडाई लेता है तब एक लेखक, कलाकार एवं शायर अपने अंदर छुपे उन अनजानी प्रकटनीय अनुभूतियों से परीचित होता है.
प्रसव पीड़ा-सी अंगड़ाई/ दर्द मिरा ये लेता क्यों है?
आँखों में असुवन की धारा/ लेकर दर्द सिसकता क्यों है?
लेखक की अमरता पर कहा गया है कि क़लम का प्रवाह जब तक ज़ारी है रचनाकार को कोई मार नहीं सकता.” अपने वजूद की गहराइयों में डूबकर, टटोलकर कुछ अनमोल खज़ाने जो उसे हासिल होते हैं उन्हें शिल्पकार की तरह तराश कर मूर्तिस्वरूप शब्दों में ढालकर वो शब्द शिल्प से एक आकार पेश करता है। इसी कलात्मक अभिव्यक्ति को इस शेर में एक दर्द की नई तस्वीर तराशते हुए देखें:
दर्द होगा तो क्या बुरा होगा/ इश्क का कर्ज़ कुछ अदा होगा
सोच का परिंदा कभी याद की किसी शाख़ से उड़ता हुआ किसी और शाख़ पर जा बैठता है, जहाँ कवि का मन अपने अंदर के विस्तार से अपने बाहर के अनुभव जोड़ कर एक नई सृष्टि का निर्माण करता है। यही यादों का सिलसिला बहुत है उसके लिए, शायद यही उसकी पूंजी है, और समाज की धरोहर भी। जब वह भावों को कागज़ पर उतरता है, तब आप-बीती, जग-बीती बन कर सामने आती है। पाठक को अपने मन कि बात लगती है, और वह लेखक के अनुभव संसार से जुडने लगता है। राज़दान साहब ने एक गहरी बात ईमानदारी के साथ कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करने की सफ़ल कोशिश की है. ग़ज़ल के अनुशासन को हर दृष्टिकोण से ग़ज़ल की विधा में शामिल करके इसे अनगिनत होठों की थरथराहट बनाने के लिये अपने भावोदगारों, अनुभूतियों और जीवन की सच्चइयों को व्यक्त किया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है.
लगता है नम एहसास, शबनमी अंदाज में इस सप्तरंगी ग़ज़ल-संसार में सारी अनुभूतियों को उंडेल रहा है- दिल की व्यथा, अपने वतन की खुशबू, लहूलुहान ख़्वाहिशों का एक तसव्वुर- आज के बेदर्द ज़माने की सही तस्वीर राज साहब की लेखनी उकेरने में सफल हुई है। कहते हैं औरों के दिये हुए कांटे इतने नहीं चुभते , जितने अपने के ख़लिश देते हुए फूल। आज के दौर में अपनेपन की नज़दीकियों में फ़ासले बढ़ रहे है, जवानियाँ शोखियों की दहलीज़ पर खिलखिला रही है और सफ़र संकरी पगडंडियों पर आगे बढ़ता ही जा रहा है। अपनाइयत को साँप सूंघ गया है, अपने हैं पर फिर भी अपनाइयत से खाली।
यहीं रचनाकार की रचनाधर्मिता उसे रचना संसार से जोड़ती है जहां वह अपने मन की उथल-पुथल के पश्चात, उन वीरानियों की हलचल के मंथन पश्चात जो विष -अम्रत का अविष्कार होता है उसका निर्माता बन जाता है। । किसी ने लेखक के संदर्भ में खूब कहा - "उसे यूँ न मारो फ़कत क़लम छीन लो, वह ख़ुद-ब-ख़ुद मर जाएगा." कलम तो अद्भुत हथियार है, एक ताकत, एक हौसला, एक जीवन संचार का माध्यम जिसकी उपज इन शब्दों में बोई गई हैः
दर्द क्या होता है कोई पूछता था बार बार
दर्द जिसके दिल में था वो कुछ बता पाया नहीं
तेरे ही नूर की किरणे है हम ज़माने में /बता तो आज उजालों को फिर हुआ क्या है
जिसको दुनिया जुनून कहती है /मेरा होशो हवास होता है
सदियां सुना रही हैं मेरी दास्तां मुझे/जन्नत से कौन खेंच कर लाया यहाँ मुझे
दर्द की इन्तहा भी देखें इस जीवन के सफ़र में जहाँ सुबह की पहली किरण से शाम की आख़िरी किरण के अस्त होने का फ़ासला है ज़िन्दगी. उसमें आदमी हर नये मोड़ पर एक मौत मरता है, अपने ही वज़ूद के बिखराव को झेलता है. जुबाँ अश्क की हो चाहे क़लम की, फिर भी पारदर्शी बिंब को उकेरने में सफ़ल हो जाती है. सुनिये उन्ही की ख़ामोश ज़ुबाँ की आहट को.....
भर चुका हूँ मैं, गले से न लगाये कोई / अब तो जीने का न एहसास दिलाये कोई
ज़िन्दगी दर्द है, मैं दर्द का अफसाना हूँ /जो हुआ खत्म बस अब शमआ बुझाये कोई
चलते रहे तो मौत बचाती रही नज़र /जब थक गये तो लुट गई हमको राहज़न
दर्द एक ऐसा कोहरा है जो दिल को घेरे रहता है, पर ज़िन्दगानी उस धुंध से गुज़रकर चाय को और भी साफ़ देख पाती है। यह दर्द सांझा सा लगता होगा। ये दर्द के रिश्ते उन ग़ैरत भरे इन्सानी रिश्तों से ज़ियादा अपने हैं, जो साथ निभाते ज़रूर है पर ग़ैरत का ज़हर घोलकर, रुलाकर, फिर हंसाने का असफ़ल प्रयास करते हैं. टूटे आइने भी क्या कभी जुड़ते हैं?
हाँ दर्द की दवा दर्द ज़रूर बन सकता है ? एक घायल दूसरे घायल की मनोदशा से वाक़िफ़ होकर, उस पीड़ा को महसूस करे, सहला सके, मरहम लगा सके। एक ऐसे समाज की आकांक्षा अब भी मन में कुलबुलाती है। इस अनुपम कृति के लिये राज़दान राज़ को मेरी बधाई एवं शुभकामनायें।
समीक्षक: देवी नागरानी
नामे किताब: हर लम्हा और, शायरः राज़दान राज़, पन्नेः १६०, मूल्यः रु१००, नाशिरः अदबी सुरताल संगम, नागदेवी स्ट्रीट, मुंबई ३
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