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हसरतों का ख़ून/रिज़वान गुल

 

सिन्धी कहानी 

              

हसरतों का ख़ून


लेखक: रिज़वान गुल

अनुवाद: देवी नागरानी


रात के मौन सन्नाटे में बड़े से घर के एक अंधकारपूर्ण कमरे में से निरंतर एक बूढ़े शख़्स के खाँसने की आवाज़ आ रही है। उसका बेटा एयर कंडीशन कमरे में अपनी घरवाली के आगोश में सोया हुआ है, अपने पिता की नासाज़ तबीयत की जानकारी के बावजूद...।

बूढ़ा शख़्स निरंतर खाँसे जा रहा था...!

स्टोररूम से नौकरानी उठकर आई। कमरे की बत्ती जलाकर उसे पानी का गिलास भरकर पिलाया।

‘बाबा आपने दवा का डोज़ लिया है?’

बूढ़े ने अपनी गर्दन ‘हाँ’ के इशारे से हिला दी। उसकी आँखों में पानी भर आया और उसका शरीर काँप रहा था। कराहती हुई आवाज़ में पूछा- ‘बेटी असद आया है?’

‘हाँ! बाबा, असद साहब और बेगम साहिबा कमरे में हैं।’

बूढ़ा फिर खाँसने लगा। अब उसकी यह खाँसी पानी का घूँट पीने से कम होनेवाली न थी। उस दाइमी खाँसी ने शरीर को एक खोखला पिंजर बनाकर रख दिया था, जिसमें उसकी साँसें किसी कमज़ोर और मजबूर पंछी की तरह क़ैद होकर रह गई थीं।

मस्जिद से ‘उसलवाह ख़ैर मन नोम’ की आवाज़ बुलंद हुई। घर के पिछवाड़े वाले पेड़ पर से चिड़ियों की चूँ-चूँ, कौवों की काँ...काँ...और दूसरे पक्षियों ने अपनी-अपनी भाषाओं में बोलना शुरू किया और हर रात की तरह एक और रात भी गुज़र गई। असद सुबह होने पर उठते ही आफ़िस की तैयारी में लग गया। पैंट, शर्ट, टाई और फिर कोट पहनकर नाश्ते के लिए टेबल पर

बैठते हुए... बड़े प्यार से घरवाली को आवाज़ दी-‘बेगम प्लीज़  जल्दी आओ मुझे देर हो रही है।’

बेगम अपने गीले बाल कंधों पर बिखेरते हुए जल्दी आकर असद के पास वाली कुर्सी पर बैठी। पहला निवाला अपने हाथ से बेगम को खिलाकर, नाश्ता शुरू किया।

‘असद! बेटा असद!’

पिता की आवाज़ उसकी सुनने की शक्तियों से टकराती है, पर सुनी-अनसुनी करते हुए घरवाली के साथ बातचीत करने में व्यस्त हो गया। नौकरानी ने उसका ब्रीफ़केस गाड़ी में रख दिया। असद ने घर से निकलते-निकलते आख़िरी बार आईने में देखते हुए अपनी टाई ठीक की और आकर ठंडी गाड़ी में बैठा। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की। पहले फ़स्ट गियर, फिर दूसरे और तीसरे के बाद चौथे गियर में गाड़ी चौड़े रास्ते पर दौड़ने लगी। कोट की भीतरी जेब में रखा मोबाइल पहले वाइबरेट हुआ और फिर बजने लगा।

‘हैलो...।’

‘साँई असद साहब!’

‘जी बात कर रहा हूँ।’

‘इरफान साहब के पिता रात गुज़र गए हैं। आज बारह बजे उनकी विदाई होगी।’

‘ठीक है!’ असद ने मोबाइल को सीट पर रख दिया। यह खबर सुनकर वह अपने पिता के बारे में सोचने लगा...

उसे अपने पिता की हर इक बात में हस्तक्षेप करना, बिना पूछे मशवरा देना, बात-बात में टोकना, पूछना और उसकी घरवाली की आज़ादी पर ऐतराज़ करना, उसे रोकने वाला अंदाज़  बेहद ग़ुस्सा दिलाता है। ऐसी बातों की वजह से उसने अपने पिता को घर में पड़ी किसी पुरानी और बेजान चीज़ की तरह रखकर भुला दिया है। असद अपने ओहदे के नशे और पत्नी की ख़ुशामद करने वाले रवैये से पिता को पल-पल तकलीफ़ पहुँचाने वाली यातनाएँ देता, उसकी हसरतों का ख़ून करता। बेपनाह बीमारियों से घिरा उसका बूढ़ा बाप ज़िंदगी की तपती सहरा में किसी लावारिस की तरह भटक रहा था।

असद सूरज ढलने के कुछ पहले घर पहुँचा। पिता के खाँसने की आवाज़ आई। ‘असद...असद!’ की पुकार सुनी। एक पल के लिए उसे ख़्याल आया कि उस अंधकारमय कमरे में जाऊँ और पिता को देखूँ, पर उसने ऐसा नहीं किया और तेज़ी से क़दम बढ़ाकर अपने ठंडे कमरे की ओर बढ़ा; जहाँ उसकी घरवाली चौड़े बिस्तर पर लेटी किसी सहेली के साथ हँस-हँसकर फ़ोन पर बात कर रही थी।

असद का पिता आज अपने बीते हुए कल की यादों के पन्ने पलटते भीतर ही भीतर दुखी हो रहा था। आँसुओं का सैलाब आँखों के बाँध तोड़कर बहने लगा। उसे याद आ रहा था...

जब असद की पैदाइश के लिए मन्नतें माँगी थीं, फिर धीरे-धीरे उसे बड़ा होते देख दिल-ही-दिल में सपने सँजोए थे; अच्छी शिक्षा देने के और उसे ऊँचे पद पर देखने के। वह ख़ुद तो सरकारी ऑफ़िस में एक अदना नौकर था, पर इकलौते बेटे की आशाओं की पूर्ति के लिए ख़ूब परिश्रम किया। इंग्लिश मीडियम स्कूल के बाद, विज्ञान विद्यालय और इंजीनियरिंग यूनीवर्सिटी तक उसकी शिक्षा का ख़र्च ऑफ़िस में ओवर टाइम करके पूरा किया। ख़ुद तो पुराने कपड़े पहनकर गुज़ारा करता था, पर असद को नई पोशाक ज़रूर सिलाकर देता। असद की माँ के गुज़र जाने के बाद उसने ही उसे माँ और बाप का प्यार दिया।

बचपन में जब असद उनसे एक ही सवाल दस बार पूछता था, तो वह उसे दस बार ही जवाब दिया करता था। उसे कंधे पर बिठाकर घर के आँगन में घुमाता। उसके गाल, बाहों और हाथों को चूमता था। बीमार होता, तो वह अपने खाने-पीने की ओर से लापरवाह होकर उसका सिर दबाता, उसे आराम पहुँचाने की कोशिश करता, उसकी सेहत के लिए दुआएँ माँगता। असद जब इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर घर लौटा, तो उसकी अमीर सहपाठिनी का उसके लिए रिश्ता आया था। उसने तो इंकार किया, पर असद की ज़िद और ख़ुशी की खातिर वह रिश्ता भी मंजूर किया।

उसे क्या ख़बर थी कि इस नए रिश्ते के कारण असद अपने सभी रिश्ते भुला देगा। उसी अमीरज़ादी की सिफ़ारिश से ही उसे तब अच्छी कंपनी में अच्छे ओहदे पर नौकरी मिल गई, अब उसे वे सभी बीते पल किसी पुराने पढ़े हुए पाठ की तरह याद न रहे और उनको दूसरी बार फिर उलटकर पढ़ने की    

ज़रूरत उसे कभी नहीं पड़ी।

बूढ़ा दिल ही दिल में असद के बाप बनने की दुआएँ माँगता रहा। उसे अचानक हिचकी पर हिचकी आने लगी। नौकर और नौकरानी हिचकियों की आवाज़ पर उस कमरे में आए। उसकी बिगड़ती हालत देखकर असद के कमरे के दरवाज़े को ज़ोर-ज़ोर  से थपथपाने लगे। वहाँ बूढ़ा बाप हिचकियों के साथ-साथ ‘असद...असद...’ ही कहे जा रहा था।

कमरे के भीतर से बेगम साहिबा की आवाज़ आती है-‘असद बाथरूम में है, शोर न मचाओ। मैं फ़ोन पर बात कर रही हूँ।’

बूढ़े ने आख़िरी हिचकी ली और उसकी षुबान से ‘अस...अस...’ निकलकर भी न निकल पाया। उस समय उसके शरीर से उसकी रूह किसी परिंदे की तरह फड़फड़ाती परवाज़ कर गई...।

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लेखक परिचय:

  रिज़वान गुल 

जन्म: 13 फरवरी 1977, लाड़काणो, शिक्षा: एम. एस. सी (भूगोल), सिंध यूनिवरसिटी से। लेखन कार्य के क्षेत्र में एक शायर, कहानीकार, एवं एक कॉलम निगार की हैसियत से जाने जाते हैं। शख्सियत के हवाले से अनेक लेख, आलेख प्रकाशित। उनकी प्रकाशित संग्रह है-पाँच दिन (सआदत हसन मंटो) के कहानियों का सिंधी अनुवाद(2005), सहत डेह जा सरजनहार (आलेख-2011), प्यार की पहली बारिश (शायरी-2012), डिक्शनरी ऑफ ज्योग्राफी(2012), सपनों का अंत (कहानी संग्रह-2014), लाड़काणों तारीख़ की रोशनी में- तारीख (2014)। साहित्य के संबन्धित लड़कने से प्रकाशित रसालों-‘शऊर’ व जीव मैग’ के संपादक। अनेक संस्थाओं से सम्मानित व पुरुकृत-- तनवीर अबासी अवार्ड-2009, बेस्ट कहानीकार अवार्ड-सचल अदबी मरकज़, लाड़काणो-1999, बेस्ट कहानीकार अवार्ड , सिंधी अदबी संगत, कम्बर -1998। अनेक मुख्य संस्थाओं के उच पद पर रहते हुए अपनी सेवाएँ दे रहे है, नेशनल ज्योग्राफी सोसाइटी, वॉशिंग्टन के सदस्य हैं। इस समय वे गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, लाड़काणो में लेक्चुरर, कार्याधिकारी के स्थान पर कार्यरत हैं। पता: हाउस न. 2077/7 समीह आबाद, लाड़काणो 

फोन: 03337553823,  ईमेल: rizwangul46@yahoo. Com 

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