अनुवाद की चौखट पर “दस्तक”साहित्य में अनुवाद विध्या को दोयम स्थान दिया गया है, परंतु मेरा मानना है कि किसी और के शब्द, भाव और शैली को अपना शब्द देना बड़ा ही मुश्किल कार्य है। एक अलग तरह की सर्जना की मांग की जाती है इस दिशा में। अनुवाद कला कोई सरकारी दस्तावेज़ नहीं है कि शब्दानुरूप अनुवाद करके मुक्ति मिल सके। इस बात को सिद्ध किया है देवी नागरानी जी ने अपने कहानी संग्रह “और मैं बड़ी हो गई” में ।
शुरुवात अगर शीर्षक से ही करें तो ज़्यादा सही होगा। ‘और मैं बड़ी हो गई’ का ‘और’ शब्द जहां हाथों में पुस्तक उठाकर पढ़ने को मजबूर करता है वहीं ‘मैं बड़ी हो गई’ शब्द समुह हर नारी पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर भी करता है। क्योंकि नागरानी जी स्वयं सिन्धी हैं- इसीलिए सिन्धी कहानियों का यह अनुवाद-अनुवाद न लगकर एक मौलिक रचना लगती है। हर कहानी का चुनाव, भाषा शैली, हिन्दी साहित्य प्रेमियों को सिन्धी साहित्य से जोड़ने का प्रयास करता है। कहानी, लेखकों की विभिन्नता, विषय विभिन्नता, लेखन शैली कहीं पर भी संग्रह के प्रवाह को बाधित नहीं करती।
इस कहानी संग्रह में देवी नागरानी जी की चार कहानियाँ हैं- ऐसा लगता है मानो सोने पर सुहागा। “और मैं बड़ी हो गई” कहानी का यह वाक्य –‘रिश्तों में अगर निभाने से ज़्यादा झेलने की बारी आ जाय तो मुलायम रिश्ते ख़लिश देने पर उतारू हो जाते हैं’ -रिश्तों के नकली आवरण को उतार कर नंगी सच्चाई को सामने रखती है, और ‘तेरा भाई तो लड़का है। ज़िंदगी के सफ़र में मर्दों को कई दिशाएँ मिलती हैं- कई मोड़ आते हैं जहां वे अपना मनचाहा पड़ाव दाल देते हैं”—21 वीं सदी के भारत में स्त्री पुरुष के बीच की अनकही-अकथनीय-असहनीय सच्चाई को हमारे सामने रखता है।
कला प्रकाश की कहानी ‘मुस्कान और ममता’ माँ की ममता को इन शब्दों में व्यक्त करता है कि - “निष्काम प्रेम सिर्फ माँ ही करती है’। “पीढ़ा मेरी ज़िंदगी” “कहानी और किरदार” “पैंतीस रातें-छत्तीस दिन “ “जीने की कला” में केवल विषय-विविधता अपितु लेखिका की अनुवाद में सर्जना शक्ति से परिचय कराती है। कीरत बाबानी की कहानी “हम सब नंगे हैं” –‘मैं नंगी नहीं हूँ-ये आपका असली रूप है, आप सब नंगे हैं”—कहने का साहस जहां लेखक ने किया वहीं अपने कहानी संग्रह में इसे शामिल कर नागरानी जी ने अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया। “नई माँ”- ‘क्या औरत की पहचान का कोई वजूद नहीं।‘ या फिर-‘जब रिश्ते जुड़ जाते हैं तो चाहकर भी उन्हें तोड़ा नहीं जाता-बस निभाने की रवायतें अपनानी पड़ती है।‘ वाक्य मन को झकझोर देता है।
“दस्तावेज़”, “जुलूस”, “जियो और जीने दो” “बारूद” जैसी कहानियाँ इस कहानी संग्रह में लेखिका की परिपक्वता, संवेदनशीलता, चुनाव शैली व विद्वत्ता की परिचायक हैं। मेरा ऐसा मानना है कि पुस्तक का शीर्षक देखकर ही पुस्तक पढ़ने के लिए मन ललचा जाता है। मेरी शुभकामना देवी नागरानी जी को और सिन्धी साहित्य को। ईश्वर करे दोनों की दिन दुगुनी रात- चौगुनी प्रगति हो।
समीक्षक: प्रो. संध्या यादव
आर. डी. नेशनल महाविध्यालय, बांद्रा, मुंबई-50
फोन: 9769640629
पुस्तकः और मैं बड़ी हो गई, लेखिका: देवी नागरानी, मूल्यः 150, पन्नेः 120, प्रकाशकः संयोग प्रकाशन , 9/ए , चिंतामणि , भयंदर (पूर्व) मुंबई-401105
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