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नई ऋतु (सिंधी कहानी अनुवाद)

 

सिंधी कहानी 

नई ऋतु


लेखक: काज़ी ख़ादिम

अनुवाद:देवी नागरानी 


ऋतु के सिर्फ़ दो नाम हैं-मिलने की ऋतु और बिछड़ने की ऋतु।

दस्तावेजों से गर्दन निकालते हुए कुर्सी के आधार पर ख़ुद को टिकाते हुए कन्हार के किनारे पर बालकौट की वादी में, होटल की बालकनी में गोधूलि वेला में पहुँच जाता हूँ।

‘आइसक्रीम खाओ।’ वह पोलबा का चम्मच मेरे मुँह में डालती है।

‘मुझे इस तरह खाने की आदत नहीं है!’ मैं कहता हूँ।

‘तो फिर किस तरह खाएँगे?’

‘होठों से’

वह ठहाका मारकर हँसती है, तो फ़िज़ाओं में महक की लहर-सी उठती है। गोधूलि वेला का श्यामल अँधेरा प्रत्यक्ष चाँदनी बन जाता है और पता ही नहीं पड़ता कि होंठ कहाँ ख़त्म हुए और आइसक्रीम कहाँ शुरू हुई।

वह गलियारे में खड़ी है और हमेशा की तरह छोटे आइने में देखते हुए अपनी लिपस्टिक ठीक कर रही है।

‘कौन कहता है कि हम काम नहीं करते?’

ये काम नहीं है, तो और क्या है?

दिन तमाम तो खड़े हैं।

They also serve who only stand and wait. 

‘इतनी ईमानदारी से कोई काम करके तो दिखाए!’

क्या-क्या दिखाएँ, ईमानदारी दिखाएँ, मेक-अप ओढ़ा हुआ चेहरा दिखाएँ। दोनों ही मजबूरियाँ हैं। ईमानदारी इसलिए, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं और मेकअप इसलिए, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता नहीं।

‘देखो तो सही पेट्रोल का दाम फिर बढ़ गया।’

‘दरजी तो देखो कितनी सिलाई लेता है।’

‘अरे भाई, एक बार मैंने अपनी घरवाली से दस रुपए उधार लेकर इश्क़ किया।’

‘वो कैसे?’

‘वो ऐसे कि प्रेमिका ने फ़रमाइश की ‘फ़िल्म दिखाओ’, जेब में हमेशा की तरह कड़की छाई हुई। इसलिए घरवाली से कहा कि कहीं से भी दस रुपए उधार लाकर दे, क्योंकि सख़्त ज़रूरत थी। ज़ाहिर है, ज़रूरी चाहिए तो पूर्ति उसे ही करनी है। वह बेचारी पड़ोस से जाकर दस रुपए उधार माँग लाई। बस, रिक्शा में बैठा, महबूबा को साथ लिया और सीधा पहुँचा सिनेमाहॉल। डेढ़ रुपया हुआ रिक्शा का, चार रुपए हुए सिनेमा की टिकट के, दो रुपए इंटरवेल में कुछ खाने के और डेढ़ रुपया हुआ वापसी का, कुल मिलाकर...कितने?’

‘नौ रुपए।’ आज तो बच्चा भी दस की नोट माँग करता है।

‘बाबा टी॰वी॰ चाहिए।’

‘अरे बाबा, टी॰वी॰ तो ठीक ठाक है।’

‘नहीं बाबा, गुड्डू की टी॰वी॰ से भी अच्छी टी॰वी॰ होनी चाहिए।’

वह लिपस्टिक लगाकर भीतर आती है और पर्स से इलाइची निकाल कर चबाने लगती है। बेचारी छोटी इलाइची से भीतर की बदबू कैसे ख़त्म होगी?

All perfumes of Arabia cannot sweeten these little hands. 

नज़र आते हुए दाग़ धोना आसान काम है, पर अनदिखे दाग़ धोना।

Heard melodius are sweet

But those unheard are sweeter

‘भाई, आग से आग नहीं बुझाई जाती और न ही गंदगी से गंदगी धोई जाती है।’

‘आप हर वक़्त गंदगी, कचरे और आग की बातें क्यों करते हो?’

‘तो कैसी बातें करें?’

‘प्यार की बातें करें, कुछ दिल की बातें करें।’

‘किससे करें प्यार की बातें? दिलवाली बातें भी कैसी...।

‘बिजली का बिल, गैस का बिल, फ़ोन का बिल, पानी का बिल...’

‘अरे बाबा, नलों में तो पानी ही नहीं आ रहा।’

‘अरे पानी दरिया में ही नहीं, नलों में कहाँ से आएगा?’

‘बाबा, दरिया शाह क्यों बुलाते हैं।’

‘भाई, दरिया बड़ा जो था।’

‘पर अभी तो बड़ा नहीं, अब शाह तो नहीं, पर निकम्मा हजाम भी नहीं रहा।’

‘जात-पात में क्या रखा है, जो मेहनत करे वह पाए।’

‘नहीं दाता, जात-पात का असर इंसान की फ़ितरत से हर वक़्त नज़र आता है।’

‘कैसी बातें कर रहे हो? अब तो नई जातें बन रही हैं और कुछ नौकरशाही की जाते हैं। कुछ शासकों की जातियाँ-सी॰एस॰पी॰ वाले सी॰एस॰ पी॰ से शादी करेंगे और पी॰सी॰एस॰ वाले पी॰सी॰एस॰ से...।

‘नए कुटुंब, नई जातियाँ, नए नाम...।’

‘सगाई कहूँ या मँगनी।’

‘मतलब एक है, बात है रस्म की।’

‘रस्मों ने भी धूम मचा दी है।’

‘हैलो...हैलो...मेरी बात भी तो सुनो।’

‘आप इलाइची तो चबा लीजिए...।’

‘आप आईना तो देख लीजिए...।’

‘आप लिपस्टिक तो ठीक कर लीजिए।’

‘अरे काट क्यों रहे हो...मैंने तो ऐसे ही बात कही।’

‘तुम तो करती ही ऐसी बातें हो, तभी तो अभी तक यूँ ही बैठी हो।’

‘अगर वैसी भी होती थी, तो क्या होता...अरे कोई पानी तो पिलाए।’

‘बिल्कुल मत पीना, पानी में गंदी बदबू है।’

‘मुझे तो चारों ओर से बदबू आ रही है।’

‘हक़ीक़त में यह बदबू तुझमें है।’

‘अब तुम व्यक्तिगत वार करने पर तुले हो।’

‘तुम आम वाहियात बातें बंद करो, तो मैं व्यक्तिगत बातें बंद करूँ।’

‘तुम क्या जानो इल्म क्या है..?’

‘मुझसे पूछो...मुझसे पूछो...मैं भी हूँ।’

‘अगर कोई कारनामा करते, तो अपनी मौजूदगी को दर्ज करने की ज़रूरत न पड़ती।’

‘जिसकी ज़रूरत है-सिर्फ़ एक कमरा, अटैचिड बाथरूम...एक टी॰ वी॰, डिश एैंटिना, एक कंप्यूटर...एक गाड़ी।’

‘और चार बीवियाँ... दो शादियाँ तो कर चुके हो।’

‘हाँ...’ 

वह ठंडी साँस भरते हुए पर्स लेकर उठती है।

‘यहाँ सर्द साँस लेना मना है। पहले से ही माहौल मुर्दा खाने की तरह ठंडा है।’

‘कभी यह माहौल बालाकोट की तरह ठंडा हुआ करता था।’

‘हाँ-हाँ, याद है मुझे। तुम्हें पोलका खाने के लिए कहा था।’

‘और मैंने क्या कहा था।’

‘तुमने कहा था कि होंठों में खिलाओ तो खाऊँगा।’

Drink to me with thine eyes only. 

‘तभी तो ऊपरी होंठ पर लिपस्टिक ठहरती ही नहीं।’

‘अम्मा सुर्ख़ी किसे कहते हैं?’

‘मुसाग क्या है अम्मा।’

‘काजल किससे लगाया जाता है?’

‘Eye Shade ने तो आँखें ही सुजा दी हैं। लगाना तो ज़रूर है।

‘धुआँ तो देखो...मच्छर मरते ही नहीं हैं। बाक़ी आँखें बाहर निकल आती हैं। खाना तो खाना है न।’

‘अब, आटा तो देखो कितना मँहगा हो गया है।

‘पता है, वह बकरे का गोश्त सवा रुपए सेर था, गाय का तो खाता ही न था।’

‘जाने कैसी बातें कर रहे हो... देख नहीं रहे हो मेरे होंठों से लिपस्टिक उतरती जा रही है।’

‘तुम्हारे होंठों को लिपस्टिक से एलर्जी है।’

‘चाय भी होंठ जलाती है।’

‘तुम्हारे होंठों को चाय से भी एलर्जी है।’

‘अरे खाना खाती हूँ, तो भी होंठ सूज जाते हैं।

‘तुम्हारे होंठों को खाने से भी एलर्जी है।’

‘तो क्या करूँ इन होठों का?’

‘किसी को उनसे आइसक्रीम खिलाओ।’

‘किसको...किसको खिलाऊँ, तुम ही खा लो।’

‘मेरा पेट अभी भरा हुआ है, बिजली, गैस और पानी के बिलों के साथ दूध वाले और पंसारी के बिलों से, स्कूलों और अस्पतालों के बिलों से, चौकीदार और सफ़ाई करनेवाले के बिलों से, केबिल वालों के बिलों से पेट भरा पड़ा है। ऐसी हालत में किसी कुल्फ़ी की गुंजाइश कहाँ हैं?

‘कितना फ़र्क है, कल और आज में।’

‘मुझे तो लगता है, आज और आज में भी बड़ा फ़र्क है।’

‘तुम तो फिलॉसफ़र (दार्शनिक) बन गए हो।’

‘यही तो जीवन का अभिप्राय है ज़िंदगी और हालात का। दार्शनिक कातिल बन जाते हैं और कातिल दार्शनिक।’

‘पर भूख तो सभी को लगती है।’

‘कपड़ा ज़रूरत है।’

‘इलाज के सिवाय चारा नहीं।’

‘बिजली चाहिए’

‘अगर रोशनी नहीं होगी, तो लिपस्टिक सही ढंग से कैसे लगेगी। जब बिजली नहीं होती थी, तब अँधेरे में कुत्ते भी साथ आकर खाना खाते थे।’

‘आख़िर कुत्तों का भी तो पेट है।’

‘देखो बातों में कहाँ से कहाँ आ गए।’

‘सुकरात से शुरू हुई और सुकरात पर खत्म हुई।’

‘तुम भी तो अभी सुकरात हो।’

‘यह तो तुम्हारी दिली तमन्ना है, वर्ना मैं आज भी सुकरात हूँ।’

‘तब भी ज़हर तो पीना पड़ेगा।’

‘यह भी तुम्हारी चाहत है, नहीं तो मैं आशिक़ ज़हर पीनेवाला नहीं हूँ।’

‘तुम्हें क्या पता कि मैं क्या चाहती हूँ। मैंने क्या चाहा था? पता नहीं नामुराद कैसी लिपस्टिक बनाते हैं। होठों से पिघलकर चेहरे का रंग-रूप ही बदल देती है।’

वह लिपस्टिक ठीक करते हुए उठी, उठकर कमरे से बाहर निकल जाती है और बालकोट के सीने को चीरते हुए कन्हार के किनारे पर अँधेरा छा जाता है, जहाँ वही आधी खाई हुई पोलका ज़मीन पर पैरों तले कुचलकर ग़ायब हो चुकी है।

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लेखक परिचय:

  क़ाज़ी ख़ादिम हुसैन : जन्म 1945. शिक्षा: बी. ए. होनोर्स, एम. ए. एवं पी. एच. डी. तक तालीम हासिल की। सिंध विश्वविध्यालय में सिंधी भाषा के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए और इस वक़्त वे डीन ऑफ आर्ट्स फ़ैकल्टि में हैं। वे एक कहानीकार, नोवेलिस्ट, नाटककर, समालोचनाओं में हस्ताक्षर लेखक माने जाते हैं। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं-नॉवेल-प्यार और सपने, दर्द की खुशबू। उनके द्वारा अनुवाद किए हुए नॉवेल हैं-जुआरी, सौदर्य की देवी, प्यार, रोल, गुड बाइ मिस्टर चिप्स।“ नाटकों के संग्रह-लुड़क-लुड़क ज़ंजीर”, कहानी संग्रह-समुद्र-उपसमुद्र”, उर्दू नॉवेल: शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक” लेखों के संग्रह: सिंध की नशरी दास्तान, शहरी ज़िंदगी और गाँव की ज़िंदगी, और सिंध के सामाजिक इरादे। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान व पुरुसकार हासिल हैं। संपर्क: घर नंबर. 95-96, अलमुस्तफा, phase-1, वधोवाह रोड, कासिमाबाद, हैदराबाद सिंध, पाकिस्तान। 

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