पित्र दिवस के पुरोधा
-देवी नागरानी
संपादक की ओर से एक अर्ज़ी आई, “पितृ-दिवस पर कुछ लिख भेजिए”. आज तक तो मात्र-दिवस की महत्वता के बारे में ज़्यादा सुनते आये हैं, उनकी महिमा के गुणगान की अनेक गाथाएं, लिखी, सुनी व् पढी हैं. सब अच्छा ही लिखते हैं, माँ के चरणों में स्वर्ग है, वो हमारी छत्रछाया है, उसके आँचल की छाँव में हमें हर हाल में, हर काल में सुरक्षा हासिल होती है...वगैरह...वगैरह...
पर क्या ये भावनाएं उस माँ को एक ठंडी छाँव दे पाई हैं, वह आंगन दे पाई है जहाँ वह चौपाइयां पढ़ते हुए तुलसी के इर्द-गिर्द अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके, अपनी पुरानी सखियों के साथ आँगन में बैठ कर दिल का हाल करते हुए गरम चाय का ज़ायका ले सके.
शायद मुमकिन नहीं, यह सुख तो गाँव में पेड़ तले बैठ कर ही कोई पाता रहा होगा, जहाँ की फिजाएं, माहौल में रंग भर देती हैं. जितना रंग जीवन में ये फिजाएं भर देती हैं, उससे कहीं ज्यादा गूढ़ा रंग माँ की ममता का होता है, पिता की परवरिश का होता है. माता-पिता जीवन की फुलवारी के बागबाँ हैं, यह सत्य सूरज की रौशनी की मानिंद दमकता है.
पर आज के मशीनी युग में कहाँ रही है वह बात. जहाँ परिवार के चार सदस्य साथ में बैठ कर बतियाएं, अपने दिल का हाल किसीको सुनायें. बस तन्हाइयों की चादर ओढ़े, सभी अपने आपसे बतियाते हैं, फ़ोन को एक औज़ार बनाकर उससे कुछ ऐसे जुड़े हैं जैसे सभी समस्याओं के समाधान उसी में समाये हैं. मशवरे लेने और देने के ज़माने जैसे लद गए हैं. तकनीकी युग की समझ दिलो-दिमाग को घेरे हुए है. बाहरी सोच समझ के दरवाज़े, आज की पीढ़ी ने भीतर की ओर बंद कर लिए हैं. बिना सूरज की रोशिनी, ताज़ी हवा की पहुँच के बाहर बंद कमरों में अपने जीवन की सुरक्षा के ताले खोल रहे हैं. मशीनों के साथ इतना पाला पड़ा है कि उन्हीं औज़ारों में अपनी समस्याओं का समाधान ढूढ़ रहे हैं.
ऐसे युग में पुरानी पीढ़ी के पास यादों के अम्बार सुरक्षित हैं और साथ में इस युग और उस युग के बर्ताव व् चलन में बदलाव को लेकर अनगिनत सवालों की कतारें भी हैं, जो जवाबों की तलबगार हैं.
सवाल उठता है उत्तम कौन है? माता या पिता? स्त्री या पुरुष? इसके लाजवाब उत्तर में सिंध के दस्तावेज़ी अदीबा पोपटी हीरानंदानी ने अपनी जीवनी एक जगह लिखा है-“चांद रात को सुन्दर बनाता है और रात चांद को ! अगर चन्द्रमा के कारण रात रुपहली सी होकर सुहागन की तरह खिल उठती है तो चांद भी रात के बिना बिल्कुल फीका और नीरस लगता है. यह रात ही है जो चांद को सौंदर्य बख्शती है.”
पति-पत्नी परिवार नामक संस्था के दो स्तम्भ है जिनके संगम से घर संसार का आंगन खिल उठता है. ऐसे समर्पित माता-पिता का योगदान क्या ‘मात्र दिवस’ या पितृ-दिवस’ के इस एक दिन का मोहताज है, जहाँ ताज़े फूल और सौगात देकर उन्हें बहलाया जाता है. उनकी शान में लिखते लिखते कलम की नोक घिस जाती है, कागज़ काले हो जाते है, शायरी के मंच पर शायर माँ पर गुणगान करते हुए बड़ी ही नज़ाकत और श्रधा पूर्ण भावों से काव्य पाठ करते हुए तालियाँ बटोरते है. महत्वता के मंच पर सभी पात्र अपना अपना किरदार बेहतरीन अदा से निभाते हैं और तालियों के हक़दार बन जाते हैं. पर माता-पिता तो शम्मअ की तरह खुद जलकर परिवार को, बच्चों की जिन्दगानियों को रौशन करते हैं. यह बात कोई जाकर परवाने से पूछे, जो रात भर जलती हुई शम्म के इर्द-गिर्द घूमते हुए अपने आप को परवान कर देता है.
अब यादों के अम्बार साये बनकर सामने लहलहा रहे हैं, कहाँ से शुरू करूँ, यही विडम्बना है. मेरे लिए मेरे पिता वही रहे, जिनकी छत्रछाया के तहत हमारे घर संसार की फुलवारी महकी. वे बागबाँ बनकर उसे सींचते हुए, अपने खून पसीने को शबनमी बूंदों में तब्दील करते है. परिवार की परवरिश में अपनी पत्नी के मान सम्मान की सुरक्षा से लेकर लालन-पालन तक की जवाबदारी में साँझा भार अपनी निष्ठा के कांधों पर उठाया.
मैं माँ को “अम्मा” व् पिता को “बाबा” कह कर संबोधित करती रही. और आज उन भूली बिसरी यादों की गांठें खोलकर अपनी भावनाएं सभी से साँझा करते हुए मुझे एक मौका और मिला है उस “बाबा” के बारे में कुछ लिखने का, अभिव्यक्त करने का.
“बाबूजी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुई तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा”
रिशतों के मर्म और महत्त्व को एक शेर में अद्भुत कला कौशल के साथ पिरोने की महारत इन पंक्तियों में शामिल है. पर पैनी नज़र से देखा जाय तो यहाँ भी, माँ का नहीं ‘ममता’ का बंटवारा हुआ है. आज की ज़िन्दगी में माता पिता का बंटवारा ‘बागबां’ फिल्म की तरह होता आ रहा है जैसे औलाद, घर की अन्य बेजान चीज़ों का बंटवारा करते हैं. जिनपर गुज़रती है उनके दिल के कितने टुकड़े होते है, कौन जानता है? उस दिल के टूटने और बिखरने की आवाज़ कब किसी के कानों तक पहुँचती है?
'अम्मा' और 'बाबूजी' शब्दों का प्रयोग ज़िन्दगी के सच के साथ जुड़ा हुआ आधार स्तम्भ है. इसी सच की महक शब्दों के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों से परिचित कराती हुई हमें घर आँगन के गुलिस्तां में ला खड़ा करती है, जहाँ अब भी यादों में कभी बचपन हंसता है, तो कभी रोता है, कभी रूठता है, तो कभी मनाने में पहल करता है. वही बचपन कभी ऊधम मचाता हुआ वक़्त के साथ जवानी और फिर मुसलसल तब्दीलियों के दौर से गुज़रता है. पर घर से, जड़ से जुड़ा मानव-मन एक अहसास को अपने भीतर हमेशा पनपते देखता है- और वह है उसका माता पिता के साथ नाता. यहीं से जीवन की पाठशाला के दायरे में रोज़ एक नया पाठ पढ़ते हुए ज़िंदगी हमें इन्द्रधनुषी रंगों से परिचित करवाती है, जिसमें दुःख सुख की धूप-छाँव, मन की आस्थाएं-अवस्थाएं झूलती रहती हैं. हक़ीक़त में यह ज़िंदगी ही है जो रोज़ नित नया बाब हमें पढ़वाकर, खुद से परिचित करवाती है.
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