कहानी
शिला
-देवी नागरानी
हाँ वह शिला ही थी ! उसे पहचानने में कैसे भूल कर सकती थी मैं? जिसे बरसों देखा, साथ गुजारा, पल-पल साथ जिया, वह भी कोई भुलाए जाने वाली बात हो सकती है?
शिला थी ही ऐसी, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी हुई एक सजीव मूर्ति जो तन का लिबास ओढ़कर इस सँसार की सैर को निकल आई हो। जिस राह से वह गुज़रती, गुज़रने वाले ठहर जाते, आँखे पत्थरा जातीं, सांसें थम जातीं जैसे किसी नूर से सामना हुआ हो। हाँ, वही हूर परी सी शिला, मेरी प्रिय सहेली जो आज मेरे सामने से खुद से बेख़बर होकर गुज़र रही है !
बारह वर्ष कोई इतना लम्बा अरसा तो नहीं होता, कि इन्सान इस क़दर बदल जाये? न फ़कत रँग रूप में, हाव-भाव में, चाल-ढाल में, जैसे पूरे अस्तित्व की काया पलट हुई हो। वो कालेज के ज़माने भी ख़ूब हुआ करते थे, जब मैं और शिला साथ-साथ समय बिताते थे - एक ही क्लास में, एक कमरे में, कभी लाइब्ररी में, कभी सिनेमा हाल में.....! लगभग पूरा समय साथ बिताते-साथ खाना, साथ पढ़ना, साथ सोना सब कुछ साथ-साथ। क्या ओढ़ना, क्या बिछाना ऐसी हर सोच से परे आज़ाद पँछियों की तरह चहकते हुए, हर पल का आनंद लेते हम हर साल कालेज में टाप करतीं। अब हम दोनों फाइनल साल में हैं। चार साल का अरसा कोई कम तो नहीं होता, किसी को जानने, पहचानने के लिये!
"अरे शिला!" मैंने उसके क़रीब जाकर उसे आवाज़ दी. खाली-खाली सी आँखे बिना भाव मेरी ओर उठीं, फिर झुकीं, और वह क़दम बढ़ाकर आगे चल पड़ी ऐसे जैसे मैं कोई अजनबी थी.
"शिला, मैं सवी, तुम्हारी सहेली सवी, सविता. कैसी हो?" उसने जैसे मेरी आवाज़ सुनी ही न थी, या चाहकर भी सुना अनसुना कर रही थी। कुछ ऐसा अहसास मन में जाग उठा. इस बदलाव के पीछे क्या कारण क्या हो सकता है? उसने यह कैसी ख़ामोशी ओढ़ ली है, कि मेरी बात उसके कानों तक नहीं रेंगती? अब मेरे मन में एक अजीब अनचाहा भाव पनपने लगा। एक सिहरन सी तन-मन में लहराती रही।
इठलाती, बलखाती, हर क़दम पर थिरकती हुई शिला, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी कोई छवि, दिन भर गुनगुनाती अपने आस-पास एक ख़ुशबू फैलाती, शोख तितिलियों की तरह इतराती फिरती। आज इतनी बेरँग, उदास, नाखुशगवार कैसे हो गई है? और अगर हुई है तो क्यों? मेरी अधीरता बढ़ी। मैंने आगे बढ़कर उसके साथ क़दम मिलाकर चलते हुए धीरे से उसका हाथ थाम लिया...जैसे मैं पहले किया करती थी।
" शिला, मैं तो वही सवी, सविता हूँ, पर तुम शिला होकर भी शिला नहीं रही, यह मैं नहीं मानती? तुम कैसी हो? समीर कैसा है?"
मैंने एक साथ कई सवाल उसके सामने रख दिये। हर सवाल पर उसके चेहरे का रंग बदलता, और जो बदलाव उसके भावों में आया वह चेहरे के आईने में साफ दिखाई दिया। अपने भीतर के सच को वह छुपाना चाहकर भी छुपा न पाई। उसकी पेशानी पर परेशानी की परछाइयाँ साफ़ ज़ाहिर होने लगीं। चेहरे पर तनाव के बादल मंडराने लगे, आँखों में उदासी के साए और गहरे होने लगे, तन सिमटकर छुई-मुई सा हो गया, कुछ इस तरह जैसे वह अपना अस्तित्व छुपा लेना चाहती हो. मैंने उसकी कलाई पकड़ ली. उसने छुड़ाने की कोशिश की तो मैंने और पुख्त़गी से पकड़ी। हाँ, इस बार उसने छुड़ाने की कोशिश नहीं की। शायद अपनेपन की गर्मी से पत्थर पिघलने लगा था. उसी प्यार की आँच में पिघलकर ही तो वह समीर के साथ चली गई, दूर बहुत दूर अपनी एक नई दुनियाँ बसाने और पीछे छोड़ गई मुझे....अपनी प्यारी सहेली सविता को, अपने अँतिम वर्ष की पढ़ाई को, अपने आने वाले उज्वल भविष्य को.....! सब-कुछ बिखर कर रह गया। शायद उस प्यार की पनाह ने उससे वह रोशनी छीन ली थी, जिसमें वह अपना उज्वल भविष्य, अपने आने वाले कल की आकांक्षाएँ नहीं देख पा रही थी। बस कहते हैं न-‘प्यार अंधा होता है’, प्यार हो न हो, पर प्यार करने वाला ज़रूर अंधा रह जाता है। प्यार के ख़ुमारी के परिदृश्य में वह देख रही थी सिर्फ़ समीर, उसकी चित्रकारी, और उसकी थिरकती उँगलियां जो रंगों में सनी रहती थी। उन्ही रंग में सनी उँगलियों से समीर अपने आस-पास के निर्जीव मंज़रों में रंग भरता, उन्हें सजीव करता। न जाने कैसा ख़ुमार था वह? एक अनजान प्यार का जुनून ही रहा होगा, जो शिला ने अपना भविष्य समीर के नाम लिख दिया. एक दिन अचानक वह समीर के साथ शादी करके मेरे सामने आ खड़ी हुई.
" सवी, मुझे और समीर को शादी की बधाई नहीं दोगी?"
" हाँ.... हाँ मुबा...मुबारक हो !...शादी....पर अचानक...!” मेरे शब्द मुँह में ही रह गए !
"हाँ अचानक ही फ़ैसला करना पड़ा। कल समीर अपने घर शिमला वापस जा रहा है, और मैं भी उसके साथ जा रही हूँ." कहते हुए शिला मेरे गले लग गई.
"पर दो महीने के बाद तेरी फाइनल परीक्षा..." मैं कहना चाह रही थी पर कह नहीं पाई. शायद शिला जानकर भी अनजान बन रही थी, या वह अब किसी प्रकार की दख़ल अंदाज़ी नही चाहती थी। इसीलिये तो शादी का महत्व पूर्ण फ़ैसला उसने अकेले ही ले लिया। किसी की राय की, या किसी की हाज़िरी की उसे ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई. हाँ एक बात साफ़ थी, इस प्यार में उसपर समीर की कला के इँद्रधनुषी रंगों का जो ख़ुमार चढ़ा था, वह उसी बहाव की रौ में बहे जा रही थी. कोई बाँध वहाँ बाँधना बेकार था। मैं भी यही सोच कर अपने पूरे होश हवास में अधूरे, लड़खड़ाते शब्दों का सहारा लेने लगी.
"सवी, इस मामले में तुम ज़्यादा मत सोचो, मैंने सोच-समझ कर यह फ़ैसला लिया है। मैं समीर के सिवा नहीं रह सकती और न वह मेरे सिवा, इसलिए हम दोनों ने यह क़दम मिलजुल कर उठाया है। अब मैं जीवन के रँगों को ओढ़ना चाहती हूँ, उनमें अपनी आशाओं को रँगना चाहती हूँ, इससे ज़्यादा न मैं कुछ कहना चाहती हूँ, न सुनना..! अब चलो कहीं बैठकर हम आख्रिरी बार साथ खाना खाएँ। कल सुबह वैसे भी शिमला के लिए गाड़ी पकड़नी है। आओ चलें !" कहते हुए उसने मेरी कलाई ठीक उसी तरह पकड़ी थी, जैसे आज मैंने उसकी पकड़ी है.
बातों के दौरान खाना खाते हुए मैं समीर की ओर चोरी छुपे देखती रही, जैसे उसके भीतर की तहों को टटोलकर, उसे जानने की, पहचानने की कोशिश करती रही. ऐसा क्या है उसमें जो वह मेरी सहेली की जिँदगी में तूफ़ान बनकर आया और बवँडर की तरह बहा कर ले जा रहा है? हमारे ही कॉलेज में कला के उस्ताद, एक माहिर चित्रकार की हैसियत से उसे फ़क़त दो महीने के लिये एक आर्ट का प्राजेक्ट सौंपा गया था। शागिर्दों को अपने हुनर से परिचित करवाने, उन्हें रंगों के विस्तार में कुछ नया तकनीकी इल्म प्रदान करने के लिए उसे कार्यरत किया गया था। लेकिन यह क्या? उसने तो समय पूरा होने के पहले ही शिला की जिँदगी को अपने रँग में रंग लिया। रंगों के विस्तार का इससे बेहतर परिचय और क्या हो सकता है? और अब मेरी जान, मेरी सखी शिला को अपने साथ ले जा रहा है, ठीक ऐसे जैसे जबरदस्ती कोई रूह को तन से जुदा करके ले जा रहा हो! मैंने सोचों के दाइरे से ख़ुद को बाहर निकालते हुए समीर की ओर देखा। वह आँखें नीचे किए बेखबरी की हालत में बैठा रहा, जैसे किसी से कुछ लेना-देना ही न हो। मैं इस नई समस्या के समाधान के रास्ते खोजने लगी जिससे शिला को अपने आने वाले कल की रौशन राहें दिखाई दे। लेकिन वह तो उसी शाख को काटने पर तुली हुई थी जिस पर उसका भविष्य टिका हुआ था। मैंने बंद दरवाजों को दस्तक देने की कोशिश में समीर से मुखातिब हुई।
"समीर बुरा मत मानना, पर एक बात ज़रूर कहूँगी। क्या तुम शिला की ख़ातिर दो महीने और नहीं रुक सकते, ताकि शिला अपनी पढ़ाई की जबाबदारी पूरी कर ले? जीवन भर साथ निभाने के लिये ज़रूरी नहीं कि हम जीवन के साथ खिलवाड़ करें. पढ़ाई तो जीवन को रौशन करती है, उसे यूँ आधी-अधूरी ...?” मेरे शब्द लड़खड़ाकर आधे-अधूरे से रह गए।
"सविता जी यह फ़ैसला शिला का है, मेरा नहीं। इस फ़ैसले से मैं ज़्यादा खुश तो नहीं, पर ज़िन्दगी से बहुत खुश हूँ। शिला मेरी कला की आधार शिला बनकर, मेरी प्रेरणा बनकर, मेरे सफ़र में मेरी हमसफ़र बनकर साथ-साथ चले, यह मेरी ख़ुशकिस्मती है."
"पर,....!" मैं एक शब्द आगे कह न पाई, अधूरे प्रयास का सिलसिला टूट गया। शिला की मूक आँखों के एक इशारे ने मुझे कुछ न कहने का सिग्नल देकर चुप करा दिया.
बस वह चली गई, अपने सपनों के राजकुमार के साथ, सपनों की सुनहरी दुनिया में, जहां जीवन के इंद्रधनुष शायद रंगों से बनाए जाते हैं। कल्पना और यथार्थ के बीच की फासले शायद रंगों से भर जाते हैं। खैर वह गई, कुछ इस तरह जैसे बेमौसम की आंधी ने उसे उखाड़ फेंका हो। और फिर सब कुछ धुँधला धुँधला सा होता गया. दिन बीते, महीने बीते, और साल भी बीतते चले गये..एक नहीं, दो नहीं, पूरे ग्यारह साल। इस दौरान ऐसा एक दिन भी नहीं आया जब मैं रात को सोने से पहले उसे याद न किया हो।
उसके जाने के उपरांत मेरा मन उचाट सा हो गया, उदासी और एकाकीपन ने मन में डेरा जमा लिया। बावजूद इसके मैंने हालात से संघर्ष करते हुए किसी तरह इम्तिहान दिया, और ख़त्म होने के तुरंत बाद अपने घर चली गई। दो महीने के बाद अखबार में मेरे पास होने की खबर से मुझे इतनी खुशी नहीं हुई, जितना शिला के परीक्षा न देने का दुख हुआ। मन मसोस कर मैंने नौकरी के लिए अर्ज़ियाँ भेजीं और चंद हफ्तों में मुझे होटल में रिसिप्शनिस्ट की नौकरी मिल गई। नौकरी मेरी मनपसंद न थी, पर मन की नीरसता को दूर करने के लिए मैंने स्वीकार ली, ताकि लोगों के बीच में मेरी उदासी कुछ कम हो जाए। दिल पर उकरे अनचाहे अक्स कुछ धुंधले हो जाएँ और मैं अपने जीवन की राहों पर आगे क़दम रख पाऊँ।
सोचों का सिलसिला साथ था, पकड़ में उसकी कलाई और हमक़दम हमारी चाल. आख़िर मैंने उसे खींचकर एक पेड़ के नीचे ले आई, बिठाया और मैं भी उसके साथ में सटकर बैठ गई, जैसे हम अक्सर बैठा करते थे. तब हमारी आखें एक दूसरे से लिपट जातीं थीं, पर आज लगा वे मिलने से कतरा रही थीं।
"अब बताओ शिला, शिमला से इतनी दूर, तुम यहाँ इस शहर में कैसे आई हो ? क्यों आई हो? और समीर कहां है? साथ में क्यों नहीं आया है ?" मैंने अनजाने में कई सवाल एक साथ पूछ लिये और जवाब के इन्तज़ार में उसकी ओर देखती रही।
चुप्पी ने उसके होंठों को जैसे सी लिया हो। कहाँ गई उसकी वह चुलबुलाहट, वह शोख़ी,
जब सब कुछ भूलाकर वह समीर के साथ शादी करके उसके सामने बधाई बटोरने आई थी ? कहाँ गई वह शिद्दत जो मस्तियों की बुलंदियां छूती थीं?
“जिन वादियों में नहीं रहना, उनसे गुज़रना कैसा शिला?” मैंने उसे कुरेदने की कोशिश की।
जवाब में उसकी मृगनयनी आँखों की सीप से कुछ मोती टपके, जिन्हें चाहकर भी मैं अपने आँचल में समेट न पाई, और न ही शिला ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश की। उन आंसुओं के सैलाब में जाने वह कितना गहरा डूबी, कितना उभरी, यह सिर्फ़ उसकी अंतरात्मा ही जानती थी। मौन की फ़सीलें तोड़ते हुए उसने उठते हुए मेरा हाथ अपने हाथ में ठीक उसी तरह पकड़ा, जैसे मैंने उसका पकड़ा था, और कहा " चलो सवी कहीं बैठकर चाय पीते है."
चाय के उस दौरान उसने चाय के साथ न जाने कितने आँसुओं का साग़र पिया, फिर भी उसकी ज़ुबान शब्दों में थाह पाती रही। शिला ने अपने जीवन की गाथा को शब्दों में समेटते हुए मुझे बताया -" सवी मैं तो उसके लिये बस तूलिका पर बिखरे हुए रँगों का एक बिँदू थी.... ."
" थी...मतलब.....?" मैंने अपनी उलझन सामने रखी। " हाँ थी. अब नहीं हूँ !" अपनेपन की आँच से थमा हुआ दर्द पिघल कर आँखों से बह निकाला, और उसी बहाव की रौ में बहते हुए शिला कहती रही - "सच मानो सवी जिस तरह समीर तूलिका पर रँग बिखेरकर मेरी तस्वीरों को सजाता, अपने हुनर की नज़ाकत से मेरे चित्रों को सजीव बनाता, जिन्हें देखते ही हुस्न के दीवाने उसकी कलाकारी पर फ़िदा होकर तस्वीरें खरीदने लगे. मुंह मांगे दामों पर आर्ट के नाम पर मेरी तस्वीरें बेची जा रहीं थीं। एक बेची जाती तो दूसरी बनाने की धुन उसके सर पर सवार हो जाती। न वह दिन देखता, न रात, बस एक ही धुन –मेरे शरीर के हर एक अंग को रंगों से निखार कर अपनी तूलिका पर ऐसे सजाता, सँवारता जैसे वह उसे अमर बना देना चाहता हो। दौलत का नशा, दिन से ज़्यादा समीर की रातें रँगीन करने लगा. मैं दिन में किसी पत्थर की मूर्ति की तरह उसकी प्रेरणा बनकर घँटों उसके सामने बैठती, और वह नपे तुले ढँग से मेरे हर कोण में वह पारदर्शी रँग भरता। तस्वीरें बिकती रहीं और वह दौलत की खनक में कहीं खोता चला गया। धन-राशी का बहाव इतना तेज़ हुआ कि उस बाढ़ में वह मुझे एक निर्जीव रंग- बिरंगी पेंटिंग समझ कर स्वार्थ की वेदी पर चढ़ाने के नए रास्ते ढूँढता रहा। सवी , सच कहती हूँ, वहीं स्वार्थ की चौखट पर मेरी मौत हुई, एक बार नहीं अनेक बार। मैं तिल-तिल जली, तिल तिल मरी, और वक़्त के साथ-साथ मैं भी पथराने लगी। मैं तुम्हारी वह सहेली तो नहीं रही जो अपना हर पल तुम से बाँट लिया करती थी, पर हाँ, अब बिखरी हुई वह शिला ज़रूर बन गई हूँ जिसका ज़र्रा-ज़र्रा वक़्त की बेदर्द मार से टूट कर धराशयी ज़रूर होता चला गया। वह शिला जो अपनी आन-बान के साथ जी लिया करती थी...वह अब खंडहर ...!" और वह फूट फूटकर रोने लगी.
अनकहे शब्दों ने हर रिक्तता को भर दिया, आँसुओं ने सब अनकहा कह दिया। मुझे लगा जैसे शिला बिखर कर टूट चुकी है, और मुझसे वही पुराना आश्रय माँग रही है - एक घनिष्ठ मित्र के आँचल की गर्मी, दोस्ती की छत्रछाया, वही निस्वार्थ स्पर्श,....!
मैंने उसे आलिंगन में भरते हुए अपने साथ इस तरह जोड़ लिया जैसे वह कभी मुझसे जुदा ही न हुई थी. उसका भी मुझसे लिपटकर गले मिलना, रोते रोते हंसना, हंसते हंसते रोना, किसी हद तक बिखराव में सिमटाव लाने का सबब बनता गया। अनुकम्पा का स्पर्श, दोस्ती की छात्र-छाया में काम करने लगा। पनाह पाते ही वक़्त के मरहम से धीरे-धीरे वह बेहतर से और बेहतर होने लगी। सूरज ढलान की ओर रुख़ कर चुका था, बिखरे रँग फिर से सिमट कर उस बेरँग शिला रूपी बिँदू में समाते चले गए। मुझे मेरी प्रिय सहेली मिल गई। बूँद सागर में समा गई, आकाश के बादल छँट गए, विराटता नज़र में भर गई।
क्षितिज के उस पार सितारों भरा आसमान साफ़ दिखाई दे रहा था. कब दुपहर से शाम, शाम से साँझ हुई पता ही नहीं पड़ा।
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