सिन्धी कहानी
हृदय कच्चे रेशे सा !
लेखक: मदद अली सिन्धी
अनुवाद: देवी नागरानी
वह जाड़े की एक सर्द रात थी। आसमान पर कहीं-कहीं थोड़े सफ़ेद बादल तैर रहे थे। सर्दी भी रोज़ से अधिक थी। मैं अपने घर में बरांडे में गुड़ियों से खेल रहा था। कुछ दूर सिगड़ी में कोयले जल रहे थे। ऐसे में अम्मी और नानी अम्मा, तैयार होकर आईं और मेरे बगल में आकर खड़ी हुईं।
‘नानी अम्मा, कहाँ जा रही हो, मुझे भी साथ ले चलो।’
मैंने गुड़िया को छोड़कर नानी के बुरक़े को पकड़ा।
‘महनाज़ विलायत से लौट आई है, हम अभिवादन करने जा रही हैं।’ अम्मी ने कहा।
जब मैंने आपा महनाज़ की विलायत से आने की बात सुनी तो रोने लगा, क्योंकि बहुत दिनों से महनाज़ आपा की बहुत सारी बातें सुनता रहा। अम्मी और नानी के मुँह से सुनते-सुनते उनके अनेक रूप मेरे ज़ेह्न में अंकित हो गए थे।
मुझे ज़मीन पर लेटते देख नानी ने मुझे उठाकर तैयार किया। नीली निकर और पटापटी बुश्शर्ट पहनकर मैं कूदता हुआ नानी और अम्मी से भी दो क़दम आगे चलते हुए जाकर विक्टोरिया गाड़ी में बैठा। विक्टोरिया चलने लगी तो मैंने गाड़ी की पिछली खिड़की का चमड़ा उठाया और रास्ते को देखने लगा। उन दिनों हैदराबाद के रास्तों की बात ही कुछ और थी। न इतना ज़्यादा ट्रैफिक, न साँस में घुटन पैदा करने वाला धुआँ, न रिक्शाओं का शोर-शराबा! मोटरें भी एक-आध दिखाई देतीं। रास्ते पर सिर्फ़ विक्टोरिया गाड़ियाँ, टाँगे और साइकिलें- फुटपाथ रास्ते से काफ़ी ऊपर, जिनके दोनों तरफ़ पीपल और बरगद के घने पेड़, तिलक चढ़ाई से स्टेशन रोड उन पेड़ों से भरा रहता था। रसाला रोड के दोनों किनारों पर विशाल बग़ीचे (एक हैदर चौक तक, और दूसरा जहाँ अब गोल बिल्डिंग है) जिसमें ऊँचे-ऊँचे पेड़, हरी-हरी घास, पानी के तालाब और फव्वारे, रोज़ शाम के वक़्त हम उन दो बग़ीचों में सैर करने जाया करते थे।
बड़ी गाड़ी, सेशन कोर्ट से होती हुई, पीछे की तरफ़ से मुंबई बेकरी के पास से गुज़री तो मैं नानी अम्मा के साथ उतरकर भीतर चला गया। अम्मा लोग जब भी किसी अपने के पास चलते थे तो पहले आकर यहाँ से केक लिया करते थे। (मज़बूत सागौन की लकड़ी के बने कबर्ड, जिन पर लगे शीशे में रखे हुए केक नज़र आया करते। शीशे के बड़े-बड़े गोल मर्तबान हमेशा बिस्कुटों से लदे हुए होते।)
बड़ी गाड़ी फिर चलने लगी तो मैं फिर खिड़की से कैंटोनमेंट के रास्ते को देखने लगा। लंबे रास्ते पर सिवाय झाड़ों से गिरे सूखे पत्तों के, जो हवा में उड़ रहे थे, और कुछ भी नहीं था। गाड़ी अहाते से होती हुई एक लाल पत्थर से बने एक विशाल दो मंज़िले मकान के पास खड़ी रही, तो हम उतरकर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे।
ये था आपा महनाज़ बानो का शाही घर, जो घर नहीं, पर महल था। सारा-का-सारा लाल पत्थर से बनाया हुआ था। उस स्थान पर सौ तो कमरे हुआ करते थे। ऊपर-नीचे इस जगह के दो दरवाज़े होते थे। एक का रुख़ दक्षिण और दूसरे का पूरब की ओर। बड़ी-बड़ी काठ की छतों वाले कमरे, बरांडे, संगमरमर की सीढ़ियाँ, बड़े-बड़े रोशनदान, जिसमें लगे रंगीन शीशे दिन की धूप में प्रतिबिंब पैदा करते। संगमरमर के सफ़ेद शेर, जो अपने कंधों पर उस जगह की ख़ूबसूरत दीवारों का बोझ उठाए आने-जाने वालों को देखा करते। ऊपर चबूतरे पर से बारादरी तो दूर से नज़र आती थी। इस विशाल दो मंज़िले इमारत में पश्चिम की तरफ़ आँगन और पूरब की तरफ़ छोटा बग़ीचा था, जिसमें किनारों की तरफ़ नीम और गेदूड़े के पेड़ और उनके बीच में एक सुंदर फव्वारा था, जिसमें से पानी आबशार बनकर नीचे तालाब में गिरता रहता था।
‘यह जादुई महल ज़रूर किसी शहज़ादी ने अपने रहने के लिए बनवाया होगा।’ हर रोज़ रात को अम्मी और नानी अम्मा से गुल बकौली, मूमल राणे और फूलों की रानी वाली कहानियाँ सुनकर मेरे तसव्वुर में भी हमेशा सिर्फ़ महल, शहज़ादियाँ और देव बसे रहते थे। सुंदर और कोमल शहज़ादी, जिसे एक बड़ा देव, एक शाही महल में क़ैद कर बैठा था, जिसे अंत में एक शहज़ादा आकर मार देता है और शहज़ादी को आज़ाद करवाता है।
अम्मी, आँगन में किसी से गले मिलीं तो मैं उसे देखने लगा। अम्मी महनाज़ आपा की सास से बातें कर रही थीं। वह हमें बरांडे में लेकर चलीं, जिसमें सबसे पहले एक शाही कमरा था, जिसे ड्राइंग रूम करके संबोधित किया जाता था। (उन दिनों यह शब्द ड्राइंग रूम भी कितना आकर्षण भरा था) वह कमरा पुराने विक्टोरियन दौर के फ़र्नीचर से भरा था। कोच, कँाच की तिपाहियाँ, मेजों (साइड टेबल), ऊपर छत पर झूमर-बल्ब (जिनकी तारें दिखाई नहीं देती थीं, फ़क़त काले लोहे के बटन दबाने से बत्तियाँ रोशन हो जाया करती थीं। उन्हें जलाने से सफ़ेद-सफ़ेद दीवारें रोशन हो जाती थीं। मैं जब भी उस ड्राइंग रूम में बैठता था तो हैरान हुआ करता था कि आख़िर ये बत्तियाँ बिना तारों के कैसे जलती हैं। उस समय तक अंडरग्राउंड बिजली की तारों का फ़ैशन नहीं था।
‘महनाज़ कहाँ है?’ अम्मी ने पूछा।
‘बैठी है ऊपर कमरे में!’ आपा महनाज़ की सास ने नाक को मरोड़ते हुए कहा।
‘बुलवा लेती हूँ!’ ऐसा कहकर वह फिर अम्मी के साथ बातें करने में व्यस्त हो गईं। वह अम्मी की बचपन की सहेली थी। उसके साथ स्कूल में पढ़ती थीं। इसीलिए उनकी बातें ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थीं। मैंने उनकी बातें सुनने के बजाय नानी अम्मा को परेशान कर दिया। उनकी पोशान खींच- खींचकर उसके उठने के लिए मजबूर करता रहा। ‘चलो चलें मुझे आपा महनाज़ को देखना है।’ आख़िर नानी अम्मा मुझे लेकर महनाज़ की ओर चल पड़ीं। ड्राइंग रूम के कोने से एक छोटा आँगन था, जिसे पार करते एक छोटे कमरे से होते, एक बड़े कमरे के दरवाज़े पर पहुँचे।
सामने मज़बूत सागौन का बना हुआ दरवाज़ा था, जिस पर रंगीन शीशे लगे हुए भीतर की जली रोशनी में दमक रहे थे। कमरा हमारी आँखों के सामने था। मेरे सामने डबल बैड पर एक गोरी ख़ूबसूरत औरत (शहज़ादी!) लेटी हुई, जिसके हाथों में कोई किताब थी, पर जिसके नयन उसके बाएँ तरफ़ वाली खिड़की के बाहर बिखरे हुए अंधकार को ताक रहे थे। मैंने अम्मी के मुँह से जो कहानियाँ सुनी थीं, उन कहानियों की शहज़ादी अपने संपूर्ण सौंदर्य, कोमलताशृंगार के साथ मेरे सामने थी। वह हमें देखते ही उठी और आकर स्नेह से नानी अम्मा से मिली। (भला कद, लंबे काले बाल, गहरे नीले नयन, दमकता मुखड़ा, गुलाब के फूल जैसे लाल होंठ)
मुझे यूँ गुमशुम ख़ुद की ओर ताकते देखकर बाँह से पकड़ते हुए कहा, ‘मासी शांति का बेटा है न?’
‘हाँ बेटा, देखो न तुम्हें कैसे ताक रहा है। तुमसे मिलने के लिए बिल्कुल अधीर था।’ नानी अम्मा ने उसे बताया।
‘बिल्कुल अपनी माँ पर गया है।’ ऐसा कहते हुए मुझे अपनी गोद में लेकर बैड पर बैठी और नानी अम्मा से बातें करने लगी और मैं उनके कमरे में रखी चीज़ों को देखने लगा।
आपा महनाज़, बहुत बरस अपने पति के साथ विलायत में रहकर लौटी थीं, इसीलिए उनका कमरा भी अजीब-अजीब चीज़ों से सजा हुआ था। डबल बैड, साइट टेबल, दीवारों पर पेंटिंग्स, लकड़ी के बड़े प़फ्रेम में बंद, एक कोने में शीशे की अलमारी, जिसके एक हिस्से में किताब, दूसरे में गुड़िया व और खिलौने, कुछ दूर तक निटिंग मशीन थी, जिसमें तारें लगी हुई थीं। (बाद में पता चला कि वह मशीन आपा महनाज़ हैदराबाद में सबसे पहले लंदन से लेकर आई थीं और वह 1957 का ज़माना था।)
कमरे के पूरब की ओर एक शाही गैलरी थी, जिस पर लटके लाल पर्दे, रेशमी रस्सी से बँधे हुए थे। उनमें से नीचे बाग़ में खड़े पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हुई नज़र आ रही थीं। बाहर आकाश पर अँधेरा छा चुका था। खिड़की से जाड़े की ठंडी बयार आकर हमें छू रही थी और मैंने आपा महनाज़ की गोद में बैठे-बैठे उसे देखा। उसका चेहरा चौदहवीं की चाँद के समान रोशन था। उसकी नीली गहरी आँखों में अथाह गहराई थी (हाँ समस्त शहज़ादियाँ ऐसी ही होंगी, शहज़ादी गुल बकावली फूलों की रानी, मूमल अम्मी की सभी सुनी हुई कहानियाँ और उन कहानियों की शहज़ादियाँ आकर मेरे सामने खड़ी हुई हैं!)
‘क्या नाम है तुम्हारा!’ उसने मेरी ठोढ़ी को अपने सुंदर हाथ से छूते हुए कहा।
मैंने देखा, उसके ख़ूबसूरत हाथों के नाख़ून खड़े हुए थे, जो लाल नेल पॉलिश के कारण चमक रहे थे। मैंने शर्माते हुए नाम बताया तो कहने लगी, ‘मैं तो तुम्हें मधु कहकर बुलाऊँगी...क्या कहकर बुलाऊँगी?... सुनाओ न बाबा?’
शर्म के मारे मैंने कुछ भी नहीं कहा, तो हँसने लगी। उसके मोती जैसे दाँत और गुलाबी होंठ-मैं गर्दन उठाकर उसे ताकने लगा और अम्मी की सुनाई फूलरानी की कहानी को याद करने लगा... (रात में अम्मी को सुनाऊँगा कि फूलरानी, देव के बंधनों से ख़ुद को आज़ाद करवाकर, अपने महल में लौट आई है)
और यह थी आपा महनाज़ से मेरी पहली मुलाक़ात, जिसने मेरे कोमल हृदय पर उसके लिए, न समझ आने वाली एक जादुई ज़ज़्बात की झिलमिलाती झीनी रिदा (चादर) डाल दी। मेरी उम्र उस वक़्त लगभग सात-आठ साल की रही होगी। पर मुझे अभी तक उसकी शख़ियत के सारे रंग और रूप याद हैं। आपा महनाज़ हैदराबाद की प्रमुख सोसाइटी की एक ज़हीन औरत थी। उस वक़्त की सभ्य सोसाइटी में मुश्किल से कोई दूसरी औरत फ़ैशन, सौंदर्य औरशृंगार में उसका मुक़ाबला कर सकती थी। जिमख़ाने की महफ़िलों से लेकर सामाजिक दायरे तक उसकी सुंदरता के चर्चे थे। उसके मैके सिविल लाइन और ससुराल शहर में रहते थे। आपा महनाज़ का पति एक नामचीन डॉक्टर था, जो हाल में लंदन से नई डिग्री लेकर आया था। उसके ससुर को अँग्रेजों के ज़माने में ‘ख़ानबहादुर’ का ख़िताब मिला हुआ था। वह हमेशा उस जगह के बड़े और लंबे बरांडे में आराम कुर्सी पर लेटे चुरुट पिया करता था। हमारे उनके साथ पुराने पारिवारिक संबंध हुआ करते थे, इसीलिए आपस में ज़्यादा आना-जाना होता था। वह दिन ख़ाली नहीं होता था जब हमारे यहाँ से कोई और उनके वहाँ से कोई हमारी ओर न आता। अम्मा अगर चलती है तो पूरा दिन आपा महनाज़ वालों के यहाँ दिन गुज़रता और वे आते तो शाम ढले हमारे यहाँ से जाते (अजीब सा ज़माना था, ज़िंदगी की समस्त बातों पर मशीनी ज़िंदगी ने अपने रंग नहीं चढ़ाए थे और आज दुख फ़क़त इस बात का है कि वे प्यार भरे क़रीबी रिश्ते जाने किस तरफ़ मुँह मोड़कर चले गए हैं। उनका कोई पता नहीं पड़ता, जिनकी चाह थी, जिनसे स्नेह था उन लोगों के चेहरे एक-दूसरे को भले लगते थे!)
और जैसे-जैसे मैं आपा महनाज़ के पास अधिक जाने लगा, वैसे-वैसे हमारा आपस में संबंध भी गहरा होता गया। वह मुझे प्यार भी बहुत करती थीं। मैं एक दिन छोड़कर नित उससे मिलने जाया करता। नानी अम्मा अक्सर उसके पति से दवा लेने चलती थी तो मैं भी उसके साथ जाता (आपा महनाज़ के पति का दवाख़ाना भी उसी शाही इमारत के निचले हिस्से में होता था!) नानी अम्मा उसके पति से दवा लेती थी और मैं आपा महनाज़ के पास ऊपर जाकर खेलता। आपा महनाज़ का कमरा, इमारत के आगे वाले भाग में रहता था, जिसके सामने फ्रांसिसी ढंग की एक शाही गैलरी थी, जिसे पेड़ों की शाख़ें छू लिया करती थीं। तेज़ हवा के झोंकों की वजह से उन पेड़ों के सूखे... और हरे पत्ते झड़कर नीचे फ़व्वारे में गिरा करते थे। लाल पत्थर की उस शाही गैलरी में मैं बैठकर खेला करता था और आपा महनाज़ मेरे क़रीब आराम कुर्सी डालकर बैठ जाती थी। गैलरी के नीचे छोटा बाग़ होता था, जिसमें दो-चार नीम और गेदूड़े के घने पेड़ और उनके बीच में संगमरमर का बना फ़व्वारा था, जिसमें से पानी निकलकर तालाब में जाकर पड़ता था। उसके चारों ओर हरी-हरी घास और थोड़ी दूर उस जगह का शीशम से बना काला दरवाज़ा था। दरवाज़े के सामने रास्ता था, जहाँ पीपल के पेड़ के नीचे कभी-कभार कोई टाँगा गुज़रता था तो उसकी आवाज़ भी वहाँ आती थी। कभी-कभी मैं और आपा महनाज़ उस गैलरी के कटहरे पर से झुककर नीचे तालाब को देखते थे। तेज़ हवाएँ हमारे पास से गुज़रकर, आपा महनाज़ के लंबे बाल उड़ाकर, झाड़ों के बीच शोर करती हुई चली जातीं। मैं उस वक़्त आपा महनाज़ के चेहरे की ओर निहारता, जो अपने दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर, नीचे पानी को निहारती रहती।
एक बार मैं और आपा महनाज़ गैलरी में बैठे थे। वह जब भी चुप होती तो सिगरेट सुलगाकर ऊपर नीचे आसमान में निहारती थी। उस दिन भी वह सिगरेट को एक सुंदर होल्डर में डालकर लाइटर से जलाकर सिगरेट के छोटे-छोटे कस लेते हुए सामने पेड़ों की चोटियों को देखने लगी। मैं जो उसके बगल में खड़ा था। उसे सिगरेट पीते देख कहने लगा-‘आपा, आप ये मत पिया करो?’
यह सुनकर उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा। वह उसी समय नहाकर बाहर आई थी। उसके काले और लंबे बाल कंधे पर लटक रहे थे। उन्हें हाथ से हटाते हुए मुझे बाहों में जकड़कर अपने क़रीब लाते हुए कहने लगी, ‘क्यों मधू, तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता क्या?’ मैंने सर हिलाकर हामी भरी तो मेरे बालों को अपनी सुंदर उँगलियों से सँवारते हुए कहने लगी, ‘अच्छा अब नहीं पिऊँगी।’
मैं गर्दन झुकाए उसके सुंदर पैरों को देखने लगा। आपा महनाज़ के हाथ पाँव बहुत ही सुंदर थे। (औरतें कहा करती थीं कि महनाज़ जैसा सुंदर हुस्न उन्होंने बहुत कम देखा है।) उसकी सुंदर लंबी उँगलियाँ, उन उँगलियों के बढ़ाए हुए नाख़ून, जिन्हें वह लाल नेल पॉलिश लगाती थी, रोशनी में हमेशा चमकते थे। अचानक मैंने उसके नाखूनों को देखते हुए कहा, ‘आपा, क्या अपने हाथों के नाखून भी विलायत से बनवाकर आई हैं?’
यह सुनकर वह हँसने लगी। ‘क्यों तुम्हें अच्छे लगते हैं क्या?’ मैं उसके हाथों को बढ़ाए हुए लाल नाख़ूनों को देखते, अपने दोनों हाथ उसके सामने फैलाते हुए कहने लगा, ‘आपी मेरे नाख़ून भी आप जैसे बना दो। मैं घर जाकर उन्हें लाल करूँगा!’ वह ज़ोर से हँसने लगी तो मैं शर्मिंदा हो गया। उसने हँसते हँसते कहा, ‘चलो तो तुम्हारे नाख़ूनों को पॉलिश लगाऊँ।’ ऐसा कहते हुए वह मुझे अंदर बैडरूम में लेकर चली। उसकी ड्रेसिंग टेबल लाल रंग की थी, जिसके शीशे सामने अनेक क़िस्म की शीशियाँ थीं। एक शीशी लेकर कहने लगी। ‘कौनसा रंग लगाऊँ?’
‘आपा आपको कौन सा रंग पसंद है?’ मैंने कहा।
‘लाल...मुझे लाल रंग पसंद है?’ वह अपने रंगीन नाख़ूनों को देखते हुए कहने लगी।
‘मुझे भी वही लगा दो!’
उसने तत्काल ही मेरे मुँह की ओर निहारा।
‘मधू, तुझे यह रंग भी मेरे कारण अच्छा लगता है?’
मैंने गर्दन हिलाई फिर हँसकर कहने लगी, ‘चलो, अब आओ तो तुम्हारे नाख़ूनों को नेल पॉलिश लगाऊँ।’
ऐसा कहते हुए वह ड्रेसिंग टेबल के पास स्टूल पर बैठकर मेरे हाथ को अपने हाथ में पकड़कर नाख़ूनों को पॉलिश लगाने लगी। मैं सामने आईने में उसे और ख़ुद को देखने लगा।
अचानक एक शख़्स बैडरूम में तेज़ी से चला आया। सूट-बूट से सजा, बदन भरा हुआ, रंग साफ़, पर होंठ अधिक मोटे। आपा महनाज़, जिसके होंठों में अटके होल्डर का सिगरेट सुलगकर ख़त्म हो गया था, मेरे हाथों में नेल पॉलिश लगाते हुए, नज़र उस पर डाली फिर अपने काम में व्यस्त हो गई। बैडरूम के भीतर आने वाला शख़्स मुझे जाने क्यों अच्छा नहीं लगा-उस समय मुझे उस शख़्स से बहुत डर लगा। मैं डरी सहमी आँखों से उसे देखने लगा। वह कपड़ों की आलमारी में कुछ ढूँढ रहा था। अचानक उसने कोई चीज़ आलमारी से निकालकर जेब में डाली और आगे बढ़ हमारे पास आकर खड़ा हुआ तो मैं अधिक डरते हुए आपा महनाज़ से सटकर बैठ गया।
‘क्या हो रहा है?’ उसकी आवाज़ बहुत भारी थी (तेज़, तीखी और इंसानी जज़्बे से खाली...।)
‘क्यों डॉक्टर साहब, कुछ चाहिए था क्या, जो इस वक़्त ऊपर आए हो?’ आपा महनाज़ ने बिना सर उठाकर उसकी ओर देखने की बजाय मेरे दूसरे हाथ के नाख़ूनों को नेल पॉलिश लगाने में लगी रही।
‘यह कौन है?’ उसने पूछा
‘मासी शांति का बेटा है?’ आपा ने जवाब दिया।
‘ठीक है...ठीक है...?’ उसने तेज़ आवाज़ में कहा। ‘पर तुम सिगरेट कम फूँका करो।’
‘मैं अपने भले-बुरे से भली भाँति वाक़िफ़ हूँ। आप मेहरबानी करके बिल्कुल चिंता न करें।’ आपा महनाज़ ने मेरी छोटी उँगली के नाख़ून को निहायत ही ख़ूबसूरती से पॉलिश लगाते हुए कहा।
न जाने अचानक उस शख़्स को क्या हुआ, वह आपा महनाज़ के साथ तीखे स्वर में बात करने लगा। वह भी पलटकर उसे उसी लहज़े में जवाब देने लगीं तो वह शख़्स ग़ुस्से में ज़ोर-ज़ोर से ज़मीन पर पैर पटकता हुआ नीचे चला गया।
औरे वही था आपा महनाज़ का पति, जिसे पहली बार मैंने इस हालत में देखा। आपा महनाज़ और उसके पति के स्वभाव में बहुत अंतर था, पर मेरा कोमल ज़ेह्न उस वक़्त उन फ़ासलों को समझ नहीं पाया।
एक बार हमारे घर आपा की सास आई थीं। अम्मी और वे, दोनों खाट पर बैठी बातें करती रहीं और मैं पास में पड़े झूले में बैठा था। मेरे हाथों में नानी अम्मा के हाथ का बना ‘गोल झूमर’ था (किसी ज़माने में छोटे पैदा हुए बच्चे के लिए रंगीन कपड़े में से बनाया जाता था। उसके भीतर कपास ठूँसी हुई होती, बाहर कशीदाकारी व चमकते सितारे टाँके जाते थे। यह बच्चे के पालने के ऊपर वाली डंडी पर टाँगी जाती थी) जो मैं पालने की डंडी पर बाँध रहा था। अचानक बैठे-बैठे मैंने महसूस किया कि आपा महनाज़ की सास के मुँह से महनाज़ का नाम निकला। बस मैंने तुरंत अपने कान उनकी बातों में लगा दिए। आपा की सास उनकी बुराई कर रही थी। वह कह रही थी-‘भाई औरत हों तो ऐसी, इतने सुख दिए हैं तो भी उसे पति की सूरत बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। अभागन को विलायत ले गया, तो वहाँ से भी अकेली-अकेली लौट आई। फिर उसे ले गया और अब इतने बरस वहाँ गुज़ारकर आई है, तो भी ज़रा ध्यान नहीं देती है उसकी ओर।’
‘आपको ज़बरदस्ती शादी नहीं करवानी चाहिए थी।’ अम्मी ने कहा- ‘तो फिर क्या करते-चचेरे रिश्ते, लेन-देन के संबंध, हमें क्या पता था कि वह किसी और से प्यार करती है। मेरा बेटा तो विलायत में था। अब तो उसे भी हर बात का पता चल गया है।’ ऐसा कहकर उसने दो-चार कड़वे शब्द आपा महनाज़ के लिए कहे। उसका ऐसा कहना और मैं, जो झूले पर बैठा था, Submit Comment