माँ ने कहा था
आदरणीया देवी नागरानी जी ने अपनी पुस्तक 'माँ ने कहा था' की समीक्षा लिखने के लिए अमेरिका से फोन किया तो मेरे पैर मानो ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कितने फख्र की बात है! कैसा स्वर्णिम अवसर मेरे हाथ आया है। बिल्ली के भाग से मानों छींका टूटाहै। पहले छींके में तो होता था दूध, पर मेरा वाला छींका ऊँचाई पर नहीं लटका था, वरन्हजारों किलोमीटर दूरी पर, अमेरिका के एक लैपटॉप के छींके में‘माँ ने कहा था’मानो दूध का भगोना रखा था. अस्तु।
पहली बार तो सरसरी नज़र से कविताओं को खंगाल डाला। विस्मित रह गई। छोटी-छोटी कविताएँ, लेकिन उनकी लघुता पर न जाइए। एक-एक शब्द भावों से इतना भरा है कि चकित कर देता है।
कवयित्री के भीतर इतनी आग है कि कभी वह राख की रजाई ओढ़े सोई हुए चिंगारी-सी लगती हैं तो कभी दहकता अंगारा, जिसकी तपिश एक-एक पंक्ति में अंदर से उठकर पाठक को भी तपा देती है।
भूखनाम की कविता में उनकी भावनाएं उभर कर बाहर आई है जो नारी को वरदान के रूप में मिलती है.
भूख - एक बीमारी, एक लाचारी है --
गुरबत को निगलकर भी
डकार तक नहीं लेती...
भूख के दो प्रकारों पर लिखते हुए वह कहती हैं कि आदमी अपनी ही हवस की भूख के आगे कितना लाचार है कि उसका कभी पेट ही नहीं भरता !
अपने आस पास की जिंदगानी में ग़ुरबत का एक और स्वरुप वह उस दूधवाली का लेकर आई है जो सुबह पांच बजे से कतार में खड़ी होकर दूध की बोतलें लेकर घर घर पहुंचती है, फ़क़त पेट की खातिर. घर पर दूध की सेवाएँ देनेवाली अपनी दूधवाली के चले जाने का दुख देवी जी ने इस कविता में व्यक्त किया है --
भार उठाया जीवन भर का
अब वो ख़ुद ही, चार कांधियों का भार बनी...
ज़रूरत और इच्छा में वे लिखती हैं-ज़रूरी नहीं कि जिस चीज़ की इच्छा हो, उसकी ज़रूरत भी हो। ज़रूरत और इच्छा के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है --
हमारी ज़रूरतें
इच्छाओं के अनुपात में
कहीं ज्यादा हैं ।
‘काला उजाला’ नामक कविता में विस्मित कर देने वाली कल्पनाएँ गढ़ती हैं कवयित्री। काली-काली कालिमा तो सुना है, पर कालाउजाला जिसमें एक धोबन का चित्रण देखिए --
अपनी ही दरिद्रता की गंदगी में
अमीर का मैल धोती है।
जीवन के सफ़र में कुछ घटते देखती हैं देवी जी। पूछताछ होती है। तहकीकात होगी और घोषणा के साथ ही उस घटना को एक अतीत, एक इतिहास होते देर नहीं लगती। यही दावा है घटना अतीत बन गई में ...
आईना और मैं-में वे लिखती हैं पुराना आईना एक ऐसा साथी है जो --
खूब जानता है साथ निभाना
न वो बदला है और न मैं ।
एक व्यथित कर देने वाली कविता है 'उत्पादन का जमाना'। बूढ़े कहीं दिखाई नहीं देते। अपने ही द्वारा स्थापित किए हुए वृद्धाश्रमों में उन्हें जाना होगा... पीड़ित वृद्धों की पीड़ा को उकेरती कविता। एक प्रश्न जो उबल रहा है मानव मन के भीतर उसके तत्व नील कंठ में पढ़िए--
कहाँ से आया है यह ज़हर...।
ज़ब्तकरनापड़ताहैउसे
क्योंकि --
हक़ीक़त तो यह है
कि हम सब नीलकंठ हो गए हैं, हाँ, नीलकंठ !
कवयित्रीसदियों से गूँगी इस धरती की पीड़ा’ज्वालामुखी’ में व्यक्त करना चाहती हैं, ताकि उसके भीतर का ज्वालामुखी शांत हो जाएऔर शीतलता उसके अंदर समा जाए।
चौपाल –पुराने कहानी किस्सों की याद ताज़ा करते है जहाँ लोग पेड़ की छाँव तले बैठ आपस में बतियाते, सलाह मशवरा करते. एक अत्यंत सुंदर कविता --
मूकता की महफ़िलों में
आस-पास बैठे हैं, बनकर अजनबी !
मूकता की भी महफ़िलें जम सकती हैं। है न एक अनोखा प्रयोग ! उसमें भी कवयित्री अनजान ही बनी रहना चाहती हैं, क्योंकि शंका है उन्हें कि --
पहचान हर रिश्ते का
अंत कर देती है।
देवी जी की अन्य कई कविताओं में बेआवाज़ की आवाज़, बेसदा चीख जैसे प्रयोग कई बार आए हैं। लगता है उन्हें पिनडॉप साइलेंस में क़ैद आवाज़ों, सदाओं, स्वरों आदि को सुनने की ईश्वर प्रदत्त अनुपम कला है, जीको अभिव्यक्र्त किया है
दिल का चौपाल नाक कविता में--
खामोशी की आहटें सुनते हैं
जो अपनी ही निःशब्दता में कह रहे हैं
ऐसे ही अनुपम प्रयोग हैं है राह पर चलते, देखते, महसूस करते, हम कुछ न कर सके’ काव्य की शब्दावली में -कुछ न कर पा सकने की विवशताओं की पराकाष्ठा उजागर करनेवाली कविता ! बम फोड़कर लाशों के बीज बोए जा रहे हैं। धरती माँ के आँचल को लहू से सींचे जाने के बाद भी न अतीत में कुछ कर सके हम, न अब ही कुछ कर रहे हैं।
यह कैसा कुसमय आ गया है कि हंस अब धरती पर रेंगने को मज़बूर हैं और कौए हंस बनकर जी रहे हैं, उड़ रहे हैं, और हम धरती पर रेंगने को मजबूर हैं।
'हंस चुगेगा दाना-दुनका , कौआ मोती खाएगा' अब चरितार्थ हो रहा है। मैं वही हूँ-काव्य शब्दावली में यही भाव व्यक्त करती है कविता -सच कहा था तुमने. पर समय का खलनायक कहता है कि मैं वही हूँ, जो तुम्हारा निवाला भी झपटकर भूख मिटाता था, भूख ! भूख !! भूख !!! इतनी बढ़ती गई कि सबके सामने ही बेख़ौफ़ हथियार के बल पर अपनी इच्छापूर्ति के लिए सब कुछ छीनने लगा हूँ मैं।
‘गुरबत का सूद’ में भी विपद परिस्थियों को दर्शाते अक्स देखिये-सदियों से अमीर बनियों के पास गुरबत रहन पड़ी है, जो एक निर्धन की पूँजी है। कर्ज़दार की कमर झुककर दोहरी हुई पड़ी है, भले ही सदियाँ गुज़र जाएँ, पर गुरबत का कर्ज़ न कभी उतरा है, न उतरेगा।
यही तो मान्यता है-कवयित्री कुछ स्थापित शब्दों की चीरफाड़ करते हुए कहतीं हैं कि सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदि शब्दों की जो मान्यता है, वही उनका मजबूत आधार भी है, किंतु --
सत्य धर्म बन जाता है
असत्य अधर्म.
आगे ‘सच की परख’ में वे कहती हैं: सच की कसौटी पर खरा उतरनेवाला 'सच' तो वह है, जिसे गवाही की बिल्कुल दरकार नहीं --
शब्दों की परिभाषा से परे
वह एक अहसास है
जो किसी प्रमाण का मोहताज नहीं !
स्वयं के बारे में ‘मैं अपूर्ण असमर्थ’ यह प्रश्न अक्सर हर उस व्यक्ति के मन में उठता ही है, जो या तो अध्यात्मिक राह का राही है या फिर भावों की उथल-पुथल में जीता कवि --
पूर्णता के दायरे में-मैं अपूर्ण असमर्थ
बस, कुछ ऐसा ही महसूस करती हैं कवयित्री भी ‘ज़िंदगी’ जो एक ऐसी लक्ष्मण रेखा है, जिसकी हद वहाँ तक है, जहाँ मौत है। तो भी इस तंग दायरे का नाम ज़िंदगी है। वाह वहीँ ‘ज़िंदगी के आयाम’ में उनका लेखन कहता है
' ज़िंदगी एक फ़ासला है
जीवन की हद से
मौत की सरहद तक का।
इसी दायरे में कमाल की बात कही गई है 'दस्तक' में। हर इन्सान भीतर नहीं, बाहर की ओर झाँककर स्वयं को ढूँढ़ने को भटक रहा है। दस्तक उसे आवाज़ें देती हैं, द्वार खोलने को, पर कवयित्री को महसूस होता है कि --
वो दर खोलना भूल गई
जो बाहर से
भीतर की ओर खुलता है।
ऐसे अनेक हक़ीक़तों की गवाह कवियित्री हकीकत में. एक ठूँठ को देखकर शायद ही कोई कवि हो, जिसको कोई भाव छूकर न गया हो। ठूँठ हमें इस कड़वे सच का अहसास कराता है कि एक दिन हमारा रूप भी उसकी तरह होने वाला है। कवयित्री को बस इतना ही फ़र्क़ लगता है कि --
वह ठूँठ खिड़की के उस पार
मैं खिड़की के इस पार ।
कवयित्री ने सन्नाटों के रेगिस्तान में खाली ख्यालों के बीज बोकर उन्हें सोच की शबनम से सींचा तो पाया कि उनका उदास मन का चमन खिल उठा। उसमें शब्दांकुर महक उठे। 'रेगिस्तान में ' शीर्षक के एकदम विरुद्ध देवी जी ने मख़मली काव्य रच डाला है। यहाँ कवि का कौशल उर्वर होकर प्रकट हुआ है।
जीवन मिला है-सीमित समय के लिए मिले हुए जीवन का अंत तय है। तत्पश्चात् तो सिर्फ़ यादें शेष रह जाती हैं परिचितों की बातचीत में --
वह याद भी...
दीवार पर टँगी तस्वीर पर
सूखे फूलों की तरह...।
उन यादों को देवी जी ने तस्वीर पर चढ़े सूखे फूलों-सा बताया है।
ज़मीर की भाषामेंदेवी जी मूक भाषा में स्वयं से बतियाती नज़र आती है तोफिरवही नियतिमें निभाने की रस्में उन्हें दिखावे की और नज़दीकियाँ बढ़ाने का ज़रिया महसूस होती हैं।‘अनजान’ में श्रीकृष्ण का वचन उद्धरित करती हैं कि नियति किसी की भी टल नहीं सकती।साजिशमें अपने ख़िलाफ़ साजिशों के षड़्यंत्र का ज़िक्र करते हुए उनका कहना है कि घुटन देनेवाला कभी आज़ादी की साँस की क़ीमत कैसे जान सकता है !‘माँगना’ में देवी जी का स्पष्ट कहना है कि माँगना एक तरह की भीख के इतर और कुछ नहीं है। अपनी अंतिम कविताअस्तित्वमें वे बिना प्रयोग शब्दों के अस्तित्व के लुप्त हो जाने से कुछ अनमना महसूस करती हैं।
माँ ने कहा थासंग्रह में ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं को ही खोज रही हैं। उनके भीतर एक अतृप्त प्यास है। किसी भी कवि में ऐसी प्यास का होना ज़रूरी भी है। मेरी दृष्टि मेंमाँ ने कहाथाभाषा, शब्दचयन, भावाभिव्यक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो साहित्य जगत में चिरस्मरणीय रहेगा।
समीक्षाकर्त्री
आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर
"श्री प्रमोदस्थान", 569 - बी, सेठीनगर,
उज्जैन -456010 (म.प्र.), भारत
फ़ोन/ई-मेल : 91-9406886611
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