पड़ी बेड़ियाँ पाँव में, हाथों में जंजीर।
सच्चाई की हो गयी, अब खोटी तकदीर।।
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आँगन-वन के वृक्ष अब, हुए सुखकर ठूठ।
सच्चाई दम तोड़ती, जिन्दा रहता झूठ।।
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पत्रकारिता में रमे , आज दुष्ट-मक्कार।।
छँटे हुओं की हो रही, अब तो जय-जयकार।
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मिर्च-मसाला झोंक कर, छाप रहे अखबार।
हत्या और बलात् की, ख़बरों की भरमार।।
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ख़बरें अब साहित्य की, हुई पत्र से लुप्त।
सामाजिकता हो रही, इसीलिए तो सुप्त।।
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पीड़ा के संगीत में, दबे गीत के बोल।
देश-वेश-परिवेश में, कौन रहा विष घोल।।
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