दोहे "रवि लगता नाराज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अच्छे दिन की चाह में, जनता है बदहाल।
महँगे होते जा रहे, आलू-चावल-दाल।।
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बाजारों में एक से, कभी न रहते भाव।
आता कभी उतार तो, आता कभी चढ़ाव।।
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रहती एक समान कब, नक्षत्रों की चाल।
कभी रुलाती प्याज तो, कभी टमाटर लाल।।
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सरकंडे के नीड़ में, बंजारों का वास।
निर्धनता का हो रहा, पग-पग पर उपहास।।
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मन में तो रावण छिपा, जिह्वा पर श्रीराम।
फिर कैसे होगा भला, रामलला का काम।।
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मलयानिल से आ रही, शीतल सुखद बयार।
पानी पर हिम जम गया, नौका है लाचार।।
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धरा-गगन पर आजकल, कुहरे का है राज।
मैदानी भूभाग से, रवि लगता नाराज।।
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