Roop Shastri
दोहे "ठिठुर रहा है गात" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बादल नभ में छा गये, शुरू हुई बरसात।
अन्धकार ऐसा हुआ, जैसे श्यामल रात।।
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अकस्मात सरदी बढ़ी, निकले कम्बल-शाल।
पर्वत के भूभाग में, जीना हुआ मुहाल।।
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पर्वत पर दिनभर हुआ, खूब आज हिमपात।
किट-किट बजते दाँत हैं, ठिठुर रहा है गात।।
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मैदानी भू-भाग में, ओलों की बरसात।
तेज हवाएँ बाँटती, जाड़े की सौगात।।
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रात ढली सूरज उगा, खिला सुबह का रूप।
सेंक रहे हैं लोग अब, बाहर बैठे धूप।।
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धूल-धुन्ध सब धुल गयी, निर्मल है परिवेश।
सारे जग से अलग है, अपना भारत देश।।
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दूध नहीं अच्छा लगे, अच्छी लगती चाय।
नया जमाना लिख रहा, नये-नये अध्याय।।
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