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अब पीपल में छाँव कहाँ है --समीक्षा

 


समीक्षा- “अब पीपल में छाँव कहाँ है” हरिनन्दन साह


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Sushil Kumar 


Sun, Sep 1, 7:07 AM (1 day ago)




to Sushil, bcc: me 


सप्तरंगी कविताओं का पुष्प गुच्छ  “अब पीपल मेंंछाँव कहाँ है”


 श्री हरिनन्दन साह जी का काव्य संग्रह कुछ समय पूर्व प्राप्त हुआ था। व्यस्तताओं के कारण पढ़ने में विलम्ब हुआ। परन्तु तीन दिन पूर्व जब पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। संग्रह में कविताओं को सात खंडों में बाँटा गया है। संग्रह की रचनाओं पर चर्चा करने से पहले कुछ अपनी बात करना चाहता हूँ जो मुझे साह जी की कविताओं में मिली। 
कविता क्या है? विचारों की दिव्यता जब सरल शब्दों में व्यक्त होती है, वह कविता बन जाती है। जब शब्द अध्यात्म कीं गहराई में गोता लगाकर ज्ञान मोती उकेरते हैं, तब शब्द मिलकर कविता बन जाते हैं। एक सूफ़ी कवि जलालुद्दीन रूमी ने बारहवीं सदी में लिखा था— 
दिये अलग अलग हैं 
पर प्रकाश एक ही है 
वह कहीं परे से आता है। 

 हमारे अनुसार यह जो परे से आने की बात है, यही कविता के सृजन का मूल स्रोत है।कविता झरने सी पहाड से झरा करती है, कविता वन उपवन के बीच हवा की तरंगों से तरंगित होती है। कविता जंगल में पशु पक्षियों का कलरव है, बचपन की अठखेलियाँ है, अल्हड़ यौवना सी चंचल है, हिरणी सी कुलाँचे भरती है। सहज सरल तरल प्रवाहमान जन जन को आह्लादित करती गंगा सी निर्मल शीतल व पवित्र होती है कविता। पता नहीं कितने साहित्यकारों कवियों विद्वानों ने कविता की कितनी व्याख्याएँ गढ़ी होंगी। लेकिन हमारे अनुसार सरल मन से निकली, सहज गति से आगे बढ़ती, जीवन को स्पंदित करती प्रत्येक रचना कविता ही है। 
कविता लिखना कितना सरल अथवा दुरूह है वह राजा जनक एवं महर्षि अष्टावक्र के संवाद से समझा जा सकता है- 

 कथा ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
 वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् बरूहि मम प्रभु ।। 

 राजा जनक ने ज्ञान प्राप्ति एवं मुक्ति हेतु अष्टावक्र के सामने जिज्ञासा प्रकट की कि हे प्रभो! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे होती है? और वैराग्य कैसे होता है? महाराज अष्टावक्र ने कहा- 

मुक्तिमिच्छसि चेन्तात विषयान् विषवत्यज।
 क्षमाज्जर्वदयातोषं सत्यं पियूषवद् भज।।

 हे प्रिय! यदि तू मुक्ति चाहता है तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा सरलता दया सन्तोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर। 
 यानि कविता के लिए आपके पूर्वाग्रहों दुराग्रहों से रहित हो कर सत्य दया सन्तोष परोपकार का अमृत ग्रहण कर मन में उत्पन्न भावों को सरलता से शब्दों में व्यक्त करना ही कविता है। माँ का बच्चों को लौरी सुनाना कविता है, जिसमें शब्दों से अधिक माँ का गुंजन व स्पर्श का भाव सन्निहित है। श्री हरिनन्दन साह की कविताओं से गुजरते हुये अनेक जगह यही सरलता सहजता की अनुभूति उनकी कविताओं में देखने को मिलती है।
 सहकारिता प्रशिक्षण केन्द्र समस्तीपुर से उपप्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त श्री हरिनन्दन जी का काव्य संग्रह “अब पीपल में छाँव कहाँ है” जब मिला तो इसके शीर्षक ने मुझे कवि के भावों पर चिंतन करने को बाध्य किया। साह जी के लेखन में सामाजिक राजनैतिक आर्थिक राष्ट्र हित पर्व त्योहार हास्य व्यंग्य राष्ट्र चिंतन किसान मज़दूर तथा अध्यात्म के प्रति गहरी विचार शीलता व सकारात्मक दृष्टिकोण नज़र आता है। जो कवि के गहन अनुभव का परिचायक है। पुस्तक में संकलित कविताओं को सात खंडों में विभाजित किया गया है जिसके कारण यह सप्तरंगी इन्द्रधनुषी आभा प्रदान कर रहा है। जैसा कि हमने पूर्व में ही कहा कि पुस्तक का शीर्षक तो बात वहीं से शुरू करते हैं— 

 अब पीपल में छाँव कहाँ है 
 पहले जैसा गाँव कहाँ है 
 नदियों की आँखें पथरायी 
पानी कहाँ है नाव कहाँ है? 

 विकास की लहर में हमने रिश्ते नाते प्राचीन धरोहर वृक्ष संस्कार संस्कृति सभ्यता को नष्ट कर दिया है। प्रदूषण नियंत्रण की बात तो हम सब करते हैं परन्तु स्वयं नदियों ताल तलैयाओं को दूषित भी करते हैं। शायद यही सब विसंगतियों के कारण कवि साह जी आहत होकर कह उठते हैं—-

 स्वार्थ सिन्धु में डूब रहे सब 
बाप बेटे में बनाव कहाँ है?
 सिसक रही मुनिया घर में 
मेहंदी वाले पाँव कहाँ हैं? 

सतरंगी कविताओं का प्रथम सोपान “तू ही तू” यानि प्रभु को समर्पण है। समर्पण के साथ भक्त का अपने आराध्य से अनुरोध और साधिकार चेतावनी दृष्टव्य है— 

मुझे क्या मैं तो जी लूँगा यूँ ही 
पर निष्ठुर कहेगा तुम्हें ही ज़माना। 
आकर प्रभु “हरि” की लाज रख लो 
नहीं तो पड़ेगा तुझे ही पछताना।

 साह जी का जन्म १९५० में हुआ यानि उन्होंने उम्र के ७४ वर्षों का अनुभव अपनी रचनाओं में संजोया है। घर परिवार समाज कार्यालय में काम करते हुए विभिन्न विचार धाराओं के साथ सामंजस्य बैठाने का अनुभव आपके पास है। ख़ुदगर्ज़ी और स्वार्थ का दौर सदैव ही रहा परन्तु पुर्व में नैतिकता की अधिकता थी जो वर्तमान में न्यून हो रही है। तब कवि अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए लिखता है- 

ओढ़कर चादर सफ़ेद शराफ़त की, 
वो रोज़ उसूलों का कत्लेआम करते हैं। 

 तो नेताओं की ख़ुदगर्ज़ी पर कहते हैं- 

 जमीं पर जिसके पाँव कभी पड़ते न थे 
आज झुग्गी में नज़र आने लगे हैं। 

 सामाजिक विद्रुपता पर प्रहार करते हुए शराब के दुष्प्रभाव पर कवि की लेखनी मुखर होकर आर्तनाद करती है- 

 सारा घर बर्बाद हो गया 
 बोतल में सभी खो गया। 
कैसे हो बच्चों की पढ़ाई 
 होगी कैसे बेटी की विदाई? 

 हरि जी ज़मीन से जुड़े कवि हैं। ग्रामीण अंचल को उन्होंने जिया है। बचपन की अठखेलियाँ उत्सव त्योहारों की मस्ती आज भी उनको जीवन्त बनाये है— 

 सच कहता हूँ फागुन में बूढ़ा भी देवर लगता है 
 दुल्हनियाँ के गाल पर काका गुलाल मलता है। 
काका की उजली दाढ़ी आज हो गई काली 
किसके गाल गुलाल मल रहे घरवाली या साली? 

 इसी प्रकार किसान की मार्मिक दशा का चित्रण, हिन्दी दिवस व महिला दिवस की प्रासंगिकता पर भी तीखे कटाक्ष किए हैं- 

 महिला दिवस मनाने भर से क्या इनका कल्याण होगा 
भाषण और सम्मेलन से क्या इनका सम्मान होगा?

 श्री हरिनन्दन जी की जन्म भूमि साहित्य की उर्वरा धरा बज्जिकांचल समस्तीपुर बिहार है। जहाँ पर बज्जिका बोली में लोक साहित्य का संरक्षण व संवर्धन होता रहा है। साह जी ने भी बज्जिका के माध्यम से लोक साहित्य में अपना बहुत सहयोग दिया है। हम्मर गाँव, बड़का भईया, महुआ महकई छई आदि अनेक रचनाओं में माटी की गंध सुवासित हो रही है। 
कवि हरिनन्दन साह जी भले ही वय के चौहत्तर वर्ष पूर्ण कर चुके हों परन्तु जब बात राष्ट्र की हो तो उनकी शिराओं में लहू खौलने लगता है और वह कह उठते हैं—

 हिमालय से आवाज़ आने लगी है 
 वादियाँ बर्फ़ की गरमाने लगी हैं। 
खून खौलने लगा हिन्द के जवान का 
नाम मिटा देंगे नक़्शे से पाकिस्तान का।

 अन्तर्व्यथा के अन्तर्गत मैं और मेरा परिवार पर लम्बी कविता सम्पूर्ण परिवार का लेखा जोखा बयान करती है। परन्तु रिसते ज़ख़्म शीर्षक में कहीं न कहीं हरि जी का मन निराशा में डूबता नज़र आता है। हमारा मानना है कि कवि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का मानस पुत्र है। इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी कवि की लेखनी से निराश स्वर समाज में नहीं जाने चाहियें। अगर कहीं निराशा भी है तो उसका सकारात्मक हल सामने आना चाहिए। 
पीपल में छाँव कहाँ है की रचनाओं से गुजरने के बाद यह कह सकता हूँ कि साह जी की कविताओं में आसपास के अनुभवों को समाया गया है। इसमें सात खंड सात रंगों के प्रतीक हैं जो विभिन्न भाव ख़ुशबू लिये इन्द्रधनुषी छटा बिखरते हैं। धर्म कर्म अध्यात्म सुख दुःख प्रेम पीड़ा पर्व त्योहार गीत ग़ज़ल यानि साहित्य की प्रत्येक विधा व विषय पर आपकी लेखनी मुखरता से चली है। पाठक स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। यही लेखन की श्रेष्ठता है। हमारी अनन्त शुभकामनाएँ आपकी लेखनी निरन्तर प्रवाहमान रहते हुए समाज का मार्गदर्शन करती रहे। 

 डॉ अ कीर्ति वर्द्धन 
 ५३ महालक्ष्मी एनक्लेव 
मुज़फ़्फ़रनगर २५१००१ उत्तर प्रदेश 
 ८२६५८२१८००
पुस्तक- अब पीपल में छाँव कहाँ है 
कवि हरिनन्दन साह 
माधोपुर दिघरूआ थाना चाँदपुर
समस्तीपुर बिहार 
८९६९९१३८४०
प्रकाशक- समीक्षा प्रकाशन
दिल्ली 

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