पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक : कीर्तिवर्द्धन का दृष्टि संसार(मुक्तक संग्रह)
रचनाकार : डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन
प्रकाशक : साहित्यभूमि, नई दिल्ली(भारत)
पृष्ठ : 78 मूल्य : रुपये 200/-
बहुत व्यापक है ‘कीर्तिवर्द्धन का दृष्टि संसार
- आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट
‘कीर्तिवर्द्धन का दृष्टि संसार’ डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन का एक ऐसा मुक्तक सग्रंह है, जिसमें परिवेशगत यथार्थ की अभिव्यक्ति कवि के अपने जीवनानुभव एवं वैचारिक दृष्टिकोण के आधार पर हुई है। कृति के अध्ययन उपरांत समीक्षक का मन सबसे पहले यह बात कहने को हुआ है कि ये मुक्तक कोई आम मुक्तक नहीं हैं, बल्कि कवि के संदर्भ में उस कहावत को चरितार्थ करने वाले हैं कि जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। मतलब कि कवि का दृष्टिकोण बहुत व्यापक है। इन्होंने वर्तमान ही नहीं, बल्कि अतीत और भविष्य तक को अपने अनुभव की आब से चमका कर मोती बना कर अपने पाठकों को दिया है और संस्कारों की रक्षा के लिए, केवल इसे ही नहीं बल्कि अपने पूर्वजों तक की वैचारिक सम्पदा को सम्भाले रखने की बात इन्होंने प्रस्तुत मूक्तक संग्रह के प्राक्कथन में ही कह दी है। प्राक्कथन को शीर्षक दिया है-‘हर दौर के सिक्के’ यह भी प्रतिकात्मक रूप में बहुत कुछ कहता है। यदि हम केवल इनकी निम्न पंक्तियों पर ही दृष्टिपात करते हैं, तो भी हमें इस संग्रह की विषय-वस्तु और इनके व्यापक दृष्टिकोण का परिचय बड़ी आानी से मिल जाता है। पंक्तियां देखिए -
हर दौर के सिक्के सम्भाल कर रखता हूँ,
हो इतिहास की पड़ताल, इसका ख्याल रखता हूँ।
बुजुर्गों ने बीते दौर का इतिहास जिया है,
उनके विचारों से संस्कार खंगाल कर रखता हूँ।।
कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त मुक्तक में ‘हर दौर के सिक्के सम्भाल कर रखने’ से कवि का सीधा सा अभिप्रायः वैचारिक सम्पदा को धरोहर की तरह सम्भाल कर रखने की बात पर कवि ने बल दिया है। इतिहास की प्रामाणिकता को बचाए रखने के लिए कवि ने संस्कारों को बचाने की बात भी तर्क सहित कही है कि इसके लिए नये दौर में नये दृष्टिकोण से विश्लेषण भी अति आवश्यक है। सामान्य पाठक भले ही इस बात को न समझे कि ‘विचारों से संस्कार खंगाल कर रखता हूँ’ से कवि का क्या अभिप्रायः है, किन्तु आम जन के लिए नीतियों का निर्धारण करने अथवा साहित्य के माध्यम से समाज को एक नई दिशा देने वाले विद्वतजन यह जानते हैं कि ‘विचारों से संस्कार खंगाल कर रखने का सीधा सा मतलब वैज्ञानिक तरीके से वैचारिक विश्लेषण से है।
कवि के इस प्रयास को ‘गागर में सागर’ की संज्ञा देते हुए डॉ. दयानिधि, सहायक प्राध्यापक व विभाग पुमुख (हिन्दी विभाग) एम.जी. डिग्री कॉलेज, भुक्ता, ज़िला बरगढ़(ओडिशा) ने अपने द्वारा प्रस्तुत संग्रह की भूमिका में कहा है कि -‘‘कीर्तिवर्द्धन का दृष्टि-संसार वास्तव में गागर में सागर है। रचनाकार ने अपने पूरे जीवन के अनुभवों को मुक्तक के रूप में हृदय से शब्दांकित किया है। यहाँ जीवन के फूल हैं, तो साथ में शूल भी। जीवन के हर पहलू को कवि ने सिद्दत से प्रस्तुत किया है। संकलन के पद ज़िन्दगी की सच्चाइयां बयान करते हैं, महज़ कल्पना की उड़ान नहीं भरते हैं।’’
वस्तुतः हम कह सकते हैं कि कवि डॉ. कीर्तिवर्द्धन अग्रवाल जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य विधा को अपनी अभिव्यक्ति का साधन(माध्यम) बनाते हुए अपने मुक्तकों में अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के रूप में अपनी दृष्टि अर्थात दृष्टिकोण का परिचय दिया है। जैसे कि जीवन में सकारात्मक सोच के महतव को प्रतिपादित करते हुए कवि कहता है कि -
सकारात्मक सोच का यह परिणाम है,
मुश्किलों से जीत जाना मेरा काम है।
डरता नहीं राह की रुकावटों से,
आँधियों में दीप जलाना मेरा काम है।
इसी तरह से राष्ट्र के सम्मान पर बल देते हुए इन्होंने कहा है -
राष्ट्र का सम्मान करना चाहिए,
मातृभाषा का मान करना चाहिए।
सीखिए भाषाएं बोली सारे विश्व की,
राष्ट्रभाषा पर अभिमान करना चाहिए।।
बदलते दौर में इंसानियत के घटते जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए कवि कहता है कि-
अंहकार का बोझ जब सिर पर चढ़ने लगा,
आदमी को आदमी तब कीड़े सा लगने लगा।
ढोने लगा वह बोझ अपना, अपने कंधों पर यहाँ,
आदमी से आदमियत का अहसास भी घटने लगा।
अहंकार छोड़ कर मानवता पर बल देते हुए कवि कहता है -
मनवीय गुणों से ओत-प्रोत भावना होनी चहिए,
गैरों के ग़म में भी हृदय की पीड़ा होनी चाहिए।
खुद की खातिर इस जहां में, पशुओं को जीते देखा,
मानव हो तो अपने दिल में मानवता होनी चाहिए।
जीवन में यदि प्यार है तो सब कुछ है, लेकिन इस संदर्भ में विश्वास की नाव को सम्भाले रखना इतना आसान नहीं है। पर आत्मविश्वास के बल पर अपनी मंज़िल को पाना मुश्किल भी नहीं है। इसी पर बल देते हुए कवि कहता है कि -
महोब्बत की राह में तूफां बहुत आएंगे,
विश्वास की नाव को लहरों से डगमगाएंगे।
भरोसा रखना खुद पर, पतवार पर अपनी,
सफीना लहरों से, बचकर निकल जाएंगे।।
इसी तरह से कविता की शक्ति को व्यक्त करते हुए कवि ने कहा है कि यह दुनियां को बदल सकती है और ऐसे में उस पर छन्द-अलंकार का नियम भी अनिवार्य रूप से लागू नहीं होता है। अगर इसके लिए कुछ विशेष रूप से आवश्यक होता है, तो वह है कि कविता में नदी सी रवानगी हो और संदेश की अभिव्यक्ति में उसका कोई सानी न हो अर्थात उसका कोई मुक़ाबला न
कर सके। इन्हीं भावों को स्पष्ट करता कवि का यह मुक्तक देखिए-
किसी कविता में, गर नदी सी रवानी हो,
संदेश देने में नहीं उसका कोई सानी हो।
छन्द-अलंकार नियम का महत्व नहीं होता,
जब कविता ने, दुनिया बदलने की ठानी हो।
यही नहीं, कवि ने अपने मुक्तकों में जीवन-दर्शन से जुड़े मुहावरों व लोकोक्तियों की व्यख्या भी बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत की है जैसे कि ‘थोथा चना बाजे घना’, ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ और ‘दो कोड़ी की औक़ात’ की व्यख्या इनके एक ही मुक्तक में देखिए -
जब भी देखा थोथे को ही ज़्यादा बजते देखा,
जब तक भरा घड़ा अधूरा, खूब छलकते देखा।
जिसकी औक़ात नहीं खुद, दो कोड़ी में बिक जाने की,
खरीददार की क्षमताओं पर, सवाल उठाते देखा।
इसी तरह से कवि द्वारा अपने एक मुक्तक में ‘ज़ख्म पर नमक लगाना’ मुहावरे का प्रयेग और इसकी विशद् व्याख्या से दिया गया संदेश भी देखते ही बनता है। मुक्तक देखिए-
किसी के ज़ख्मों पर यूं ही, नमक लगाया नहीं करते,
किसी की मौत पर कभी, मुस्कराया नहीं करते।
जानता हूँ उसका गुनाह, नाकाबिले बर्दाशत था,
बर्बादियों पर किसी की, मगर खिलखिलाया नहीं करते।
समय भी एक जैसा नहीं रहता। दुःख के बाद सुख की प्रबल सम्भावना पर बल देते हुए कवि कहता है-
जाता हुआ सूरज वह कह जाता है,
सुबह फिर आऊँगा, मेरा इंतज़ार करना।
यह उदासी, तन्हाई, कसक और बेचैनी,
बस रात की मेहमां, इनसे क्या डरना।
उपरोक्त उद्धरणों को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि डाॅ. अ. कीर्तिवर्द्धन जी ने जीवन के प्रति आशावादी सोच रखते हुए अपने मुक्तकों के माध्यम से जीव-जगत व प्रकृति से जुड़े विविध विषयों पर अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने कवि-दृष्टिकोण का परिचय दिया है। सम्पूर्ण मुक्तक संग्रह के अध्ययन-अवलोकन उपरांत हम पाते हैं कि भले ही इन्होंने मुक्तक रचना के दौरान मात्रा और छन्द-अलंकार आदि की तरफ विशेष ध्यान न दिया हो किन्तु जीवन की सच्चाई को व्यक्त करने व कविता के माध्यम से संदेश रूप में नैतिक शिक्षा देने में पूरी ईमानदारी का परिचय दिया है। इन्होंने स्वयं भी कहा है कि -
सीधी-सच्ची बात, तुम्हें मैं बतलाता हूँ,
शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं कर पाता हूँ।
देख रहा हूँ जग में, जो आँखों के सम्मुख,
मन के भावों को, शब्दों में लिख जाता हूँ।
मतलब कि प्रस्तुत मुक्तक संग्रह के माध्यम से कवि ने अपने देखे-भोगे सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण प्रस्तुत करने करते हुए जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण का परिचय दिया है और साथ ही यह संदेश भी दिया है कि बुजुर्गों द्वारा जीए गए इतिहास की प्रामाणिकता को बचाए रखने के लिए अपनी वैचारिक दृष्टि से संस्कारों का संरक्षण एवं विश्लेषण अति आवश्यक है। पृष्ट संख्या की दृष्टि से यदि मूल्य की अधिकता को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो आवरण, क़ाग़ज़ व छपाई आदि की दृष्टि से प्रस्तुत मुक्तक संग्रह काफी ठीक-ठाक है। विश्वास किया जा सकता है कि कीर्तिवर्द्धन जी की अन्य कृर्तियों की तरह से इनकी यह कृति भी लोकप्रियता के सोपान चढ़ेगी। वस्तुतः कीर्तिवर्द्धन जी हार्दिक बधाई एवं साधुवाद के पात्र हैं।
- आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट
अध्यक्ष, आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान,
सर्वेश सदन, आनन्द मार्ग कोंट रोड़,
भिवानी-127021(हरियाणा)
मो. - 9416690206
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