Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

गाँव से शहर

 
गाँव से शहर

छोड़कर गाँव के घर, दौड़ते थे शहर को,
हरे भरे खेतों को तज, दौड़ते थे शहर को।
न कहीं चौपाल लगती, न कहीं चूल्हा ही था,
बस हसीं ख़्वाब ख़ातिर, दौड़ते थे शहर को।

खेत खलिहानों से निकल कर, पिंजरों में सिमट गये,
देखने को चाँद तारे, खुले गगन में परिन्दे तरस गये।
न कहीं बैलों की घंटी, न पनघट ही बचा बाक़ी,
जानता नहीं कोई किसी को, रिश्ते नाते भटक गये।

रखता नहीं कोई भी खिड़की, शहर के मकान में,
बचा नहीं आँगन भी कहीं अब, शहर के मकान में।
शर्मो हया- बड़ों का लिहाज़, यहाँ जानता कोई नहीं,
पैसे से रिश्ता निभाते, साथ रहते शहर के मकान में।

दिखती नहीं गाँव की छोरी, कहीं घूँघट की ओट में,
शहर में आ लाजवन्ती, खो गई फ़ैशन की दौड़ में।
छोड़कर धोती कुर्ता पाजामा, छैला बाबू बन गया,
गाँव भी दौड़ने लगे अब, शहर बनने की होड़ में।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ