Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ग्लोबल वार्मिंग एंव जल संकट

 

 

भौतिक सुख की दौड में, दौड रहे जो लोग,

प्रदूषण फैला रहे, नहीं सत्य का बोध।

ए. सी., कूलर, फ्रीज से, गैसों का उत्सर्जन,

जल में भी करने लगे, रसायनों का उपयोग॥

 

 

 

जी हाँ, वातानुकूलित कमरे में बैठने वाले, गाडियों में चलने वाले तथा नदियों में रसायनयुक्त जल व नगर की नालियों का पानी मिलाने वाले प्रकृति के सबसे बडे दुश्मन हैं, मगर विकास की परिभाषा “भौतिक सुख” मानने वाले विकसित देश अपनी आर्थिक समृद्धि को बनाए रखने के लिए विकासशील देशों के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठाने में पूर्णतया सफल हैं कि राष्ट्र का विकास भौतिक साधनों की वृद्धि से ही सम्भव है। कभी ग्लोबल वार्मिंग तो कभी जल संकट, ओजोन परत विवाद, प्रदूषण आदि सभी विषय विकसित देशों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम हैं।

 

 

भारत का आधार प्रकृति है। हमारे यहाँ जल, धरा, आकाश, वृक्ष, अग्नि, पत्थर सभी कुछ पूजनीय हैं। हमारी अवधारणा है कि “भगवान” पाँच तत्वों – भू, गगन, वायु, अग्नि व नीर से मिलकर बना है। प्रकृति के इन पाँचों तत्वों की दिन-प्रतिदिन पूजा का प्रावधान ही भारतीय संस्कृति है। पीपल, नीम, तुलसी, बड (वट) आदि सभी वृक्षों की पूजा, सुरक्षा एंव संरक्षा, नदी, तालाब व सरोवरों का संरक्षण, वायुमण्डल को शुद्ध बनाए रखने के लिए हवन आदि सभी धार्मिक क्रियाऐं अन्धविश्वास नहीं अपितु प्रकृति को संरक्षित रखने के वैज्ञानिक एंव दूरदर्शी उपाय ही हैं।

 

 

आधुनिक वैज्ञानिकों का लक्ष्य समग्रता और पूर्णता के साथ सृष्टि का विकास नहीं है। प्रत्येक वैज्ञानिक एक निश्चित दृष्टि से (जिस प्रकार घोडे की आँख पर कवच - मोहरा) देखता और शोध करता है तथा अपने शोध पर आधारित परिणाम प्रस्तुत करता है। स्वार्थी राजनेता, व्यापारी व संस्थाएं अपने लाभ के आधार पर इन विचारों का प्रचार-प्रसार करती हैं। भारत के गाँव-गाँव तक पैर पसारते घरों में लगने वाले “वाटर प्योरीफायर” उपकरण इसी व्यापारिक सोच का परिणाम है। ऐसा प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है जैसे कुँए, नहर या नल से पानी पीने वाले बीमार पड जाएंगे, मर जाएंगे – किसलिए? हो सकता है कि किसी नगर या क्षेत्र विशेष में कोई समस्या हो तो यह वहाँ की सरकार का दायित्व है कि समस्या का समाधान करे।

 

 

ग्लोबल वार्मिंग की बात करें तो बडी भयावह तस्वीर दिखाई जाती है। ऐसा लगता है कि हमारी धरती जल जाएगी, सारे ग्लेशियर पिंघल जाऐंगे, समुद्रों के किनारे वाले शहर डूब जाएंगे? यह भयावह-डरावना दृश्य ही विकसित देशों के विकास का खेल है। यह कटू सत्य है कि नगर की तुलना में गाँव में गर्मी का प्रकोप कम है, बाग-बगीचों में तापमान अत्यधिक कम है। नदियों-तालाब व सरोवरों के नजदीक रात्रि में इतना ठंडा हो जाता है कि वहाँ बिना कपडा ओढे सो नहीं सकते मगर किसी भी विकसित देश ने अपने यहाँ अथवा विकासशील देशों में वृक्षारोपण पर कोई जोर नहीं दिया। दूसरी बात ग्लोबल वार्मिंग से पिघलने वाली बर्फ आखिर कहाँ गई? नदियों में कहीं भी जलस्तर नहीं बढा। भूजलस्तर भी नहीं बढा फिर वह पानी कहाँ गया? तीसरी बात – ग्लोबल वार्मिंग का असर अगर ग्लेशियरों के पिघलने पर पड रहा है तो इसका असर पानी के वाष्पीकरण पर भी तो पडना चाहिए। अगर पड रहा है तो वर्षा में वृद्धि क्यों नहीं? विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाला चेरापूँजी भी अब बरसात को तरसता है। अब बात करते हैं – समुद्र के जलस्तर के बढने की तो यह बात तो बिल्कुल सच है कि समुद्र में जल स्तर बढ रहा है, परन्तु क्या केवल ग्लेशियरों के कारण? विचार कीजिए – समुद्र के किनारों का अतिक्रमण कर नए नए नगर बसाना, सभी औद्यौगिक व नगरीय कचरे का समुद्र में निस्तारण, अत्याधिक मात्रा में विशाल जलपोतों का समुद्र पर दबाव भी समुद्रीय जलस्तर बढने के कारण हैं। विकसित देशों ने तो समुद्र के अन्दर सडकें, रेल लाईनें तथा दुबई जैसे आर्थिक सम्पन्न देशों ने विशाल बिल्डिगें समुद्र के अन्दर ही खडी कर दी हैं।

 

 

ग्लोबल वार्मिंग के सन्दर्भ में वैज्ञानिकों द्वारा बताया जा रहा है कि इसके लिए ग्रीन हाऊस गैसें ज्यादा जिम्मेदार हैं जिसमें कार्बन-डाइ-आक्साइड का सबसे अहम् कार्य है। कार्बन-डाइ-आक्साइड यानि CO2 का उत्सर्जन हम लोग अपनी साँस से भी करते हैं। अब भारतीय संस्कृति के इस पहलू पर भी विचार करें कि मनुष्यों के आवास के पास फल छायादार वृक्ष हों। पीपल – बड (वट) व तुलसी की पूजा व काटने पर पूर्णतया प्रतिबन्ध – आखिर क्यों? यही है वैज्ञानिक सच कि वृक्ष कार्बन-डाइ-आक्साइड को खींचते हैं और बदले में ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। पीपल आदि वृक्ष 24 घन्टे ऑक्सीजन देते हैं यानी जितना भी कार्बन-डाइ-आक्साइड का उत्पादन, वह सब वृक्षों द्वारा शोषण। जिस जगह वृक्षों की रखवाली, वहाँ गर्मी पर लगा निशान सवाली? यानी गर्मी का सत्र बहुत कम – परिणामत: ए.सी., फ्रिज की आवश्यकता खत्म – अर्थात – ग्रीन हाऊस गैस के ऊत्पादन में कमी। कहने का तात्पर्य यह है कि मुद्दा ग्लोबल वार्मिंग नहीं है अपितु मनुष्य द्वारा निज स्वार्थों में वन का संहार है –

 

 

सूरज को मत दोष दो, जलना उसका काम,

वन-वृक्ष काटे है जिसने, करो उसे बदनाम।

करो उसे बदनाम, धरती पर प्रदूषण फैलाते,

नदियों में गन्दगी मिला, पेयजल दूषित बनाते।

कहें “कीर्ति” सुनो गौर से, पढे लिखे हो मूरख,

रोशनी-ऊर्जा बाँटता, जग का पालक सूरज।

 

 

अब बात करते हैं – धरती पर बढते पेय जल संकट की। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लेशियर पिंघल रहे हैं, समुद्र का जल स्तर बढ रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है और इन सब के कारण पेय जल संकट बढता जा रहा है। पेय जल संकट या प्रदूषित जल संकट का सबसे बडा कारण – विकसित एंव विकासशील देशों व स्वार्थी व्यापारियों की सोची-समझी साजिश का बडा हिस्सा है। प्रायोजित सेमीनार, मीडिया तथा एकपक्षीय खोज करने वाले वैज्ञानिक इस काले धन्धे के खेल में सहायक हैं। कहाँ गए वे सब ताल-तालाब-तल्लैया-सरोवर जहाँ वर्षा का पानी इकट्ठा होता था?

 

 

हरी-भरी धरती को मानव, बंजर बना रहा,

काट-काट के पेड पौधे, कंकरीट उगा रहा।

बन्द कर दिए पोखर-तालाब, सारे जहान से,

बंजर करने का इल्जाम, बादलों पर लगा रहा।।

 

 

वेदों में वर्णित है कि घने वृक्षों वाले क्षेत्र में वर्षा अधिक होती है और यह बात आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने भी जाँची है। तब नदियों, नहरों के किनारे, तालाब-पोखर-सरोवर के किनारे वृक्ष लगाने की परम्परा थी। यानी इन स्थानों पर वृक्षों का विकास शीघ्र होता था तथा वृक्षों की छाया से पानी का वाष्पीकरण कम होता था। जल ठंडा और शीतल बना रहता था। क्या यह हमारी वैज्ञानिक सोच नहीं थी? आधुनिक वैज्ञानिकों ने हमारी परम्परागत सोच-समझ को तो ठुकरा दिया, मगर उसी बात को जब श्री अनुपम मिश्र जी अपनी पुस्तक “आज भी हरे हैं तालाब” (1993) तथा “राजस्थान की बूँदें” (1995) तथा श्री राजेन्द्र सिंह जी, जिन्हें “जलपुरूष” व “राजस्थान के डाँडी” कहा जाता है, कहते हैं तो उन्हें अनेक सम्मानों से अलंकृत किया जाता है। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा पेयजल संकट से निपटने के लिए हमें अपने पौराणिक ज्ञान का महत्व समझना होगा, हमें विश्व पर मँडरा रहे इन खतरों से निपटने के लिए आगे आना होगा और भारतीय ज्ञान, धर्म व संस्कृति के महत्व को समझाते हुए वास्तविक विकास का कार्य करना होगा। वास्तविक विकास यानी मनुष्यत्व का विकास, जहाँ भौतिक सुखों से अधिक आध्यात्मिक सुखों की कामना हो, “वसुधैव कुटुम्ब” की भावना हो तथा “सर्वे सन्तु निरामया” की सद्भावना हो।

 

 

ग्लोबल वार्मिंग तथा पेयजल की बढती समस्या के समाधान हेतु –

 

 

चलो लगाएं एक वृक्ष, बचें ताल-तडाग,

चाहे जितनी तब यहाँ, नभ से बरसे आग।

धरती को पानी मिले, चुनरी धानी माथ,

वृक्ष धरा के आभुषण, मानव अब तो जाग॥



 



डा. अ. कीर्तिवर्द्धन

 

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