मौत से पहले हार मानूं, हो नहीं सकता,
भविष्य से भी रार ठानूं, हो नहीं सकता।
क्या छिपा काल के गर्भ में, कौन जाने,
ज़िन्दगी को बिसरा दूं, हो नहीं सकता।
सौ बरस हो जिन्दगी, यह कामना है,
अध्यात्म हो आराम भी, यह साधना है।
जब वृद्ध हो जाऊंगा, कुछ मुश्किलें होंगी,
दौलत से राह आसां होगी, यह मानना है।
कर रहा सामां इकट्ठा, इसलिए सौ बरस का,
कोई और भोग लेगा, दुनिया में मैं न रहूंगा।
निष्क्रिय बनकर बैठे जाएं, कल की न सोचें,
बदलते दौर में आश्रित बनकर, मैं न रहूंगा।
अ कीर्ति वर्द्धन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY