पर्यावरण
बन्द कर दिये ताल तलैया, बन्द सभी सरोवर हैं,
नदियों में कचरा घर का, काटे सभी तरुवर हैं।
कच्ची भूमि बची न आँगन, प्यासी धरती आकुल,
चहुँओर कंक्रीट के जंगल, ख़ुश बहुत मान्यवर हैं।
नभ से थोड़ा जल बरसा तो, मानव उससे घबराया,
अपनी सुविधा की ख़ातिर, भू जल दोहन करवाया।
नहीं मिला जब जल धरा को, बंजर धरती कराह उठी,
सूखा बाढ़ का दोषी भी, मानव ने कुदरत को बतलाया।
बहुत स्वार्थी मानव जिसने, खेल अनुठे थोपे हैं,
लालच में वृक्षों को काटा, पुनः स्वार्थ में रोपें हैं।
नित नया प्रदूषण फैलाकर, पर्यावरण को रौंद रहा,
न जाने कितने ख़ंजर मानव ने, मानवता को घोपे हैं।
अ कीर्ति वर्द्धन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY