आज की चित्र रचना-
भुला दिये घर बार गाँव के, शहर चले आये,
तन्हा छोडा आंगन, उसमें पीपल ऊग आये।
पूछ रही दीवारें, दरवाजे भी अलख जगाते,
घायल घर की सुध लेने, कोई घर आ जाये।
जीवित है इतिहास, इन्हीं दर औ' दीवारों में,
आँगन की आस आज भी, बचपन इठलाये।
था सांझा परिवार, एक ही चूल्हा जलता था,
तन्हाई में व्यथित घर, द्वार पर आँख गडाये।
अ कीर्ति वर्द्धन
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