Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जब जाग रहा होता हूँ

 
जब जाग रहा होता हूँ, तब भी सोया सा रहता हूँ,
आँख खुली पर ब्रह्मांड में कहीं खोया सा रहता हूँ।
कभी खोजता सत्य क्या है, कभी जगत का सार,
कभी सोच कुछ पलकें भीगें, तो रोया सा रहता हूँ।

चिन्तन करते करते अक्सर, चिन्ता में पड़ जाता हूँ,
भटक रहा क्यों धर्म मार्ग से, विचलित सा हो जाता हूँ।
नहीं रहे अब ध्यानी ज्ञानी, जो अध्यात्म की बात करें,
अर्थ बना प्रधान- धर्म गौण, कुण्ठित सा हो जाता हूँ।

कभी कभी तो ऐसा लगता, सन्यास की बात करूँ,
कर्तव्य की राह छोड़कर, पलायन पर विश्वास करूँ।
कभी सोचता राजा जनक सा, कमल समान रहूँ जल में,
घातों प्रतिघातों के दौर में, क्यों खुद पर खुद घात करूँ।

अ कीर्ति वर्द्धन

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