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मौन की मुखरता का

 

Sushil Kumar 


Wed, Apr 23, 8:20 PM (2 days ago)





मौन की मुखरता का, समय सम्मुख आ गया,
घुट रहा आक्रोश भीतर, बाहर निकल आ गया।
मानवता खातिर जिनको, बार बार मौक़ा दिया,
मौत के दरिंदों को, निपटाने का अवसर आ गया।

कब तलक निंदा करें, खून कब तक बहता रहे,
विरोधियों के व्यंग्य बाण, मुल्क क्यों सहता रहे?
संरक्षण में जिनके पलते, आतंक के सिपहसलार,
निपटाना होगा संरक्षकों को, निर्दोष क्यों मरता रहे?

भेड़ खाल भेड़िए, सबसे बड़े ग़द्दार हैं,
इनसे ही तो जुड़े, विपक्षियों के तार हैं।
धर्मनिरपेक्ष खेल, कब तक सहते रहें,
पीठ पीछे कर रहे, जो हम पर वार हैं।

भावनाओं के अतिरेक में, कब तक नीर बहायेंगे,
घर बाहर छिपे हैं दुश्मन, कब तक सहते जायेंगे?
सीमाओं पर कड़ी चौकसी, घुसपैठिये बच न पायें,
आतंकवादियों के संरक्षक, पहले उनको निपटायेंगे।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन










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