Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

पर्यावरण चिंतन

 
पर्यावरण चिंतन

पर्यावरण शब्द परि तथा आवरण से मिलकर बना है। परि का अर्थ हैं चारों ओर तथा आवरण का अर्थ है ढकना। इस प्रकार पर्यावरण का अर्थ हुआ जो जीव जगत को चारों ओर से आवृत्त किये रहता है।

परितः आवृणोति जीव जगद्गुरु पर्यावरणम्।

पर्यावरण को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है 
१ भौतिक पर्यावरण 
२ सांस्कृतिक पर्यावरण 

भौतिक पर्यावरण मूलतः प्रकृति निर्मित होता है। जबकि सांस्कृतिक पर्यावरण मानव निर्मित। भौतिक व सांस्कृतिक दोनों ही पर्यावरण एक दूसरे के पूरक प्रेरक पोषक व आश्रित हैं।

विभिन्न विद्वानों द्वारा पर्यावरण की जितनी भी परिभाषायें दी गयी हैं, सबका सार जीव जगत व प्रकृति के बीच सम्बन्ध से जोड़ा गया है। भारत के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम १९८६ के अनुसार—
“पर्यावरण में जल हवा और भूमि तथा मानवीय प्राणी, अन्य जीवित प्राणी पौधे सूक्ष्म जीवाणु तथा सम्पत्ति में और उनके बीच विद्यमान अन्तर्सम्बन्ध सम्मलित है।
वेदों के अनुसार सृष्टि में रचित समस्त पदार्थों एवं प्राणियों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्रत्येक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर है। “तैत्तरीय ब्राह्मण” औषधियों को वृषवृद्ध कहता है, जिसके दोनों ही अर्थ हैं— वर्षा को बढ़ाने वाली तथा वर्षा से बढ़ने वाली। यजुर्वेद में भी जल को औषधियों से बंढने वाला तथा औषधियों को बढ़ाने वाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि पर्यावरण की रक्षा के लिये सम्पूर्ण जैव मण्डल का नियमित एवं सुव्यवस्थित रहना आवश्यक है। अतः यह आवश्यक है कि प्रकृति का दिव्य संतुलन न बिगड़े।

पर्यावरण प्रदूषण— पर्यावरण प्रकृति का स्वयं का अनुशासन व संतुलन है। इस अनुशासन व संतुलन के भंग होने से प्रदूषण उत्पन्न होता है। प्रदूषण एक ऐसी अवांछित स्थिति है जिसमें भौतिक रसायनिक और जैविक परिवर्तनों के द्वारा हवा जल व धरातल अपनी नैसर्गिक गुणवत्ता खो देते हैं और जीवधारियों के लिये हानिकारक प्रमाणित होने लगते हैं । अथर्ववेद में प्रदूषण सम्बंधित मन्त्रों का उल्लेख पाया जाता है—-

 वी भद्रं दूषयन्ति स्वधाभि— दुष्ट मनुष्य सज्जनों को अन्नों अथवा शक्तियों से दूषित करते हैं । 

यद्यपि अथर्ववेद में प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण अथवा प्रदूषण का प्रयोग नहीं पाया जाता परन्तु विद्वानों के अनुसार उपरोक्त श्लोकों की तरह अनेक स्थानों पर संकेत मात्र से प्रदूषण को रेखांकित किया गया है। प्रदूषण भौतिक व सांस्कृतिक में विभाजित किया गया है । सांस्कृतिक प्रदूषण का तात्पर्य है मानव की मानसिक गुणवत्ता का ह्वास व अधार्मिक आचरण में बढ़ोतरी। जबकि भौतिक प्रदूषण को सामान्यतः चार श्रेणियों में बाँटा जाता है - - १ वायु प्रदूषण २ जल प्रदूषण ३ भूमि प्रदूषण ४ ध्वनि प्रदूषण 

 सांस्कृतिक प्रदूषण— दम्भ दर्प अभिमान क्रोध पारूष्य अज्ञानी सब सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले तत्व हैं। आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य दम्भ मान और मद से युक्त होकर किसी भी प्रकार न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर तथा अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण कर भ्रष्ट आचरणों से युक्त होकर संसार में प्रवृत्त होते हैं। 

 भौतिक प्रदूषण—- 
वायु प्रदूषण— जब वायुमंडल में वाह्य स्रोतों से गैस धूल दुर्गंध धुँआ और वाष्प आदि अधिक मात्रा में आ जाती है तो वह वायु की नैसर्गिक गुणवत्ता को प्रभावित करती है और जीवन के लिये उपयोगी प्राण वायु हानिकारक वायु बनने लगती है तो उसे वायु प्रदूषण कहते हैं। रोगकारी जन्तुओं में अज्ञात रोगों को पैदा करने की क्षमता होती है। ऐसे ही अज्ञात रोगों की कीटाणु यक्ष्मा (टीबी) में पाये जाते हैं जिनका उपचार हवन द्वारा करने का भी उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है— 
 मुअ्चामि त्वा हविषा जीवनाय, कमज्ञातयक्ष्मादुत राजय़क्ष्मात्। ग्राहिर्जग्राह यद्येतदेनं कल्याणी इन्द्राग्नि प्र मुमुक्तमेनम्।। 

 जल प्रदूषण— स्वच्छ जल के स्रोतों में जब गंदे सड़े रसायनिक तत्वों का मिलना होता है तब जल अपना नैसर्गिक रूप त्यागने लगता है। और मानव पशु पक्षी जीव जन्तु जल जीव व प्रकृति जन्य सभी पेड़ पौधों के लिये हानिकारक होता है। अथर्ववेद में सरोवर के निकट लगे वृक्षों लताओं के फल फूल पत्तों के कारण सड़ने वाले जल को भी त्याज्य बताया गया है।

भूमि प्रदूषण— पृथ्वी मंडल के कुल क्षेत्रफल का २८.२% भाग भूमि है। इसमें से २% भाग पर कृषि, ८.६% पर वन, ७.२% पर घास के मैदान तथा १०.४% पर दलदल तथा गर्म व शीत मरुस्थल का फैलाव है। भूमि के भौतिक रसायनिक व जैविक गुणों में बाह्य कारकों से ऐसे परिवर्तन जो मानव पशु पक्षियों तथा वनस्पतियों के लिये हानिकारक हों, भूमि प्रदूषण कहा जाता है। 

 ध्वनि प्रदूषण— ध्वनि मानवीय अभिव्यक्ति है। जब ध्वनि शोर का रूप धारण कर मानव इन्द्रियों पर विपरीत असर डालने लगे तब यह ध्वनि प्रदूषण कहलाता है। शोर को अधिकतम ७५ से ८५ डेसीबल निर्धारित किया गया है। ९० डेसीबल के ऊपर की ध्वनि के प्रभाव से मनुष्य बहरा तक हो सकता है। अथर्ववेद में चिल्लाना शोर मचाने को ध्वनि प्रदूषण कहा गया है ।

 पर्यावरण संरक्षण— प्राकृतिक संसाधनों की दक्षता व हितकारी उपयोग तथा प्रकृति व मानव का अनुपातिक संतुलन ही पर्यावरण संरक्षण है। पर्यावरण सभी के जीवन का आधार है। भू जल वायु अग्नि का आश्रय लेकर ही प्राणी जीवित रहते हैं। अतः इन सबका संरक्षण ज़रूरी है। अथर्ववेदीय ऋषियों ने शुद्ध एवं समृद्ध पर्यावरण के मानव जीवन व विकास के लिये अनिवार्य माना तथा प्रकृति की महिमा के सम्मुख स्वयं को उपासक के रूप में प्रस्तुत व समर्पित किया। प्रकृति के उपकारों के प्रति समर्पण का तात्पर्य उसको प्रदूषण से दूर रखना व पर्यावरण संरक्षण है। 

चरक संहिता में कहा गया है कि शुद्ध पर्यावरण जितना प्राणी के लिये आवश्यक है उतना ही औषधियों के लिये भी। अथर्ववेदीय ऋषि तो प्रकृति से साग सब्ज़ी फल पुष्प लेने से पुर्व उनकी प्रार्थना कर उन्हें प्राप्त करते थे। यानि विनम्र व हिंसा रहित भाव से। जिसके कारण औषधियों की प्रकृति बदलने का उल्लेख भी मिलता है। 
मानव सूर्य आकाश पृथ्वी और ज्ञान की सहायता से प्रदूषण दूर कर पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है य। अथर्ववेद में अंतरिक्ष पृथ्वी और द्युलोक के प्रदूषण को गार्हपत्य अग्नि द्वारा दूर करने का वर्णन मिलता है—

 यदन्तरि़क्षं पृथिवीमुत द्यां यन्मातरं पितरं वा जिहिंसिम। अथ तस्माद् गार्हपत्यो नो अग्निरूदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम्। 

 ऋषियों ने भूमि को माता अन्तरिक्ष को भ्राता व द्यो को पिता माना है। क्योंकि वे हमें विपत्ति से बचाते हैं। वहीं मानव को भी सावधान किया है कि वह ऐसा कोई काम न करें जिससे इन बन्धुओं की हानि हो। मानस प्रदूषण ही सम्पूर्ण विश्व में अशांति का मूल है।अतः वेदों में मन की शुद्धता व श्रेष्ठ संकल्पों की प्रार्थना की गयी है ।
तन्में मनः शिवसंकल्पमस्तु। (यजुर्वेद ३४.१) 

 मन के पाप को प्रदूषण बताया गया है । अतः एक मंत्र में मन के पाप को दूर करने की प्रार्थना की गई है —-

 परोऽपेहि मनस्पाप किमसस्तानि शंससि। 

 डॉ अ कीर्ति वर्द्धन 
५३ महालक्ष्मी एनक्लेव 
 मुज़फ़्फ़रनगर २५१००१ 
उत्तर प्रदेश 
 मोबाइल ८२६५८२१८०० 
सन्दर्भ- वेदों में पर्यावरण (डॉ नन्दिता सिंघवी)

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ