क्या मैं बेटी हूँ इसलिए
तुम मुझे हर उस गलती का
ज़िम्मेदार ठहरा सकते हो,
जो मैंने कभी किए हीं नहीं?
क्या मैं बेटी हूँ इसलिए
तुम अपनी सारी मुसीबतों की जड़
मुझे बता सकते हो ?
क्या मैं बेटी हूँ इसलिए
मुझ पर पाबंदियाँ लगाकर
मुझे चैके-चुल्हे तक सीमित रख सकते हो?
क्या मैं बेटी हूँ इसलिए
मुझसे सपने देखने का अधिकार भी
तुम छिन सकते हो?
क्या मैं बेटी हूँ इसलिए
अपने पुरुषत्व से
तुम मेरे अस्तित्व को
जब चाहे कुचल सकते हो?
या फिर मैं बेटी हूँ इसलिए
तुम्हें डर है समाज का,
लोक परम्परा का,
रीति -रिवाज का।
पर शायद तुम भूल रहे हो
की इस समाज की रचना
हमसे ही हुई है,
हम हैं तो स्नेह, दुलार, उल्लास-उमंग
धरती पर अब भी कायम है।
हम हीं ममता की प्रतिमूर्ति है
हमसे करुणा का संचार है,
हम ही एक बहन का आर्शीवाद
हम ही पत्नी का त्याग है।
हम ही तुम्हारे हमसफर
हम ही तेरे हमराज हैं,
तुम्हारे अंतर्मन की शक्ति बन
हम मुश्किलों से लड़ते हैं,
तुम्हारा हौसला, गुरूर बन
हम बुलंदियों को छूते हैं।
इसलिए मत कोसो
हमें मत बांधो,
मत जकड़ो मसलो मत हमें,
मत रोको, मत टोको
मत कोख में मिटने दो हमें,
खुल कर जीने दो,
अपनी मंजिल छूने दो हमें।
बेटों के साथ कदम दर कदम
सम्मान से बढ़ने दो हमें,
डाँ आरती कुमारी
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