डॉ अजय जनमेजय
रोशनी घर में रहे खुद को जलातीं हैं |
एक हद तक दर्द के भी गीत गातीं हैं |
आप तो उनको सिखाकर भूल बैठे सब |
बेटियाँ रिश्तों को आखिर तक निभातीं हैं ||दुःख का उसके सागर छलका |
जो था अन्दर बाहर छलका |
पीर बढी जब जब बिटिया की |
आँख का उसकी सागर छलका ||दुख बुहारती चलीं हैं बेटियाँ |
लो दुलारती चलीं हैं बेटियाँ |
घर की रौनकें सभी इन्ही से हैं |
घर सँवारती चलीं हैं बेटियाँ ||माँ बहिन बीबी बनी जब भा रही थी वो |
साथ में सपने हजारों ला रही थी वो |
पर धरा पर आ न पाई मार ही डाला |
हाथ छोटे प्यार से फैला रही थी वो ||आप कहते हो जीवन में क्या फर्क है |
आदमी का दिया खूब ये तर्क है |
एक दिन के लिए बेटियों सा जियो |
ज़िन्दगी बेटियों के लिए नर्क है ||
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