वंचित तबके की अवहेलना का कडवा सच
डाॅ. जनक सिंह मीना
डी. लिट्.
संपादक, अरावली उद्घोष, जयपुर (राज.)
भारतीय इतिहास सैदव ही अनूठा रहा है और इसकी विशेषताओं में भी एक ऐसा मिश्रण रहा है जो विश्व के अन्य देशों से अलग पहचान दिलाता है। दुनिया के देशों में शासन-प्रशासन व्यवस्था के विभिन्न रूप देखे जा सकते हैं और इसी क्रम में भारत की शासन व्यवस्था की बता की जाए तो समय के साथ इसमंे भी बदलाव आये हैं, जहां कभी राजतंत्र, निरकुंश तंत्र और अभी लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था रही है। हम स्वंतत्रता के पश्चात् के दौर की बात करते हैं तो संवैधानिक रूप से देश में संसदीय लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का प्रचलन है परन्तु इसमें भी शासन के विभिन्न रूप देखे जा सकते हैं। भारतीय संविधान भेदभावरहित समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक व्यवस्था करता है परन्तु वास्तविकता के धरातल पर इसका व्यावहारिक स्वरूप उससे भिन्न है। संविधान की उद्देशिका में सभी के लिए विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म की उपासना की स्वंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा व्यक्ति की गरिमा का उल्लेख किया गया है परन्तु यथार्थता में अनेकानेक भिन्नताएँ देखी जा सकती हंै। इस सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिकता में भिन्नता ने ही वंचना को जन्म दिया है। अब प्रश्न उठता है कि वंचना क्या है? इसके क्या कारण हैं? देश में उसकी क्या स्थिति है? इसमें कौन लोग सम्मिलित हैं? इसकी विचारधाराएँ क्या हंै? तथा इसको समाप्त करने के लिए कौनसे उपाय हैं? इन प्रश्नों के उत्तर हमें खोजने होंगे तभी हम इस वंचित तबके की बात कर सकेंगे और इस तबके की अवहेलना के दंश को समझ पायेंगे।
आम तौर पर वंचित का तात्पर्य है- जिसे वांछित वस्तु प्राप्त न हुई हो या प्राप्त करने से रोका गया हो या महरूम रहा हो अथवा उसके साथ धोखा हुआ हो या उसे ठगा गया है या किसी कार्य या प्रसंग आदि से अलग रखा गया हो या विमुख किया गया हो। वंचना अधिकारों से वंचित करने, सत्ता से दूर करना या रखना, कर्तव्यों से विमुख करना, सफलता या जीत से अलग रखना, उपेक्षित, शोषित, पीड़ित इत्यादि सभी वंचना के शिकार होते हंै। वंचना एक व्यापक अवधारणा है और यह समय, स्थान एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। वंचना को किसी जाति, वर्ग, क्षेत्र, भाषा या व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है बल्कि यह परिपेक्ष्य के साथ इसके स्वरूप एवं प्रकार बदलते रहते हैं। वंचना को आम लोग सामान्यतः अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों तक संकीर्ण दृष्टिकोण में रखते हैं परन्तु यह एक अत्यंत व्यापक अवधारणा है और इसका विस्तृत क्षेत्र है। यह अवश्य है कि वंचना का दंश इन वर्गों के लोग अधिसंख्य अनुभव करते हैं और जीवन के प्रत्येक पडाव एवं स्तरों पर प्रत्यक्ष रूप से सामना करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है कि इससे दुनिया का कोई वर्ग अछूता हो, हाँ यह अवश्य है कि उसकी मात्रा एवं स्वरूप भिन्न हो सकता है। इसमें महिलाएँ, पुरूष, किसान, मजदूर, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग और यहाँ तक कि कई बार स्वर्ण कहे जाने वाले सामान्य जाति के लोग भी इससे प्रभावित होते हैं। वंचना से कोई भी धर्म अछूता नहीं है अर्थात् हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाइ धर्म, सिक्ख धर्म, पारसी, जैन या आदिवासी धर्म को मानने वाले लोग हों, समय काल एवं परिस्थिति के अनुसार वंचना का प्रकार, प्रकृति एवं स्वरूप बदलता रहा है।
सभ्यता के प्रारम्भ से लेकर प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में वंचना विद्यमान रही है परन्तु उसकी प्रकृति, क्षेत्र, प्रकार एवं मात्रा में भिन्नता देखी गयी है। आज देश में वंचित वर्ग को येनकेन प्रकारेण भ्रमित, गुमराह, भटकाव, अहितकर, अकल्याणकारी अवधारणा की ओर धकेलने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। चूंकि वंचित वर्ग के लोग भोले- भाले, सज्जन, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार एवं सहृदयी खुले दिमाग वाले हैं जिन्हें चिकनी चुपड़ी बातों में फंसा कर पूंजीपति, सत्ताधारी एवं अभिजात्य वर्ग वाले ठगते-ठगते ठेकेदार बन गए हंै। चालाक, मुँह में राम बगल में छुरी रखने वाले काले दिलों वाले ये लोग वंचितों की एकता को हरगिज नहीं देखना चाहते क्योंकि ये इनको भलीभाँति पता है कि जिस दिन ये जाग गए और संगठित हो जायेंगे तो इस पृथ्वी पर वंचना वाले लोगों का ही राज होगा और वे लोग ऐसा राज करेंगे कि दूसरे लोग राज के बारे में सोच भी नहीं पायेंगे। आज देश में वंचना के अनेक प्रकार एवं स्वरूप देखे जा सकते हैं।
वंचित तबके की वंचना की विद्यमानता हर काल और समय में देखी जा सकती है, अन्तर केवल मात्रात्मक एवं मूल्यात्मक हो सकते हंै। वंचना में अधिकार, मूलभूत सुविधाएँ, अवसर, सहभागिता, निर्णयन, सत्तात्मक आदि सभी देखने को मिलते हैं। प्रत्येक युग एव काल में वंचित वर्ग तिरस्कृत, शोषित, पीड़ित एवं अमानवीय व्यवहार का शिकार रहा है। इस वर्ग का योगदान प्रत्येक युग एवं काल में अविस्मरणीय रहा है चाहे बलिदान की गाथा हो, त्याग एवं सम्पर्ण की भावना हो, अंग्रेजों से लोहा लेने के कारनामे हो, सभी जगह निस्वार्थ एवं देशभक्ति में अपने को न्यौछावर करने में अग्रणी भूमिका निर्वहन की है। परन्तु यह देखा गया है कि इस वंचना वाले वर्ग को इतिहास में या तो गायब ही कर दिया है अथवा गलत तथ्य एवं सूचनाएँ जोडकर उसको महत्वहीन बना दिया है, क्योंकि उस समय के इतिहासकारों ने जाति, क्षेत्र, वर्ग आदि के पूर्वाग्रह से इतिहास का लेखन किया है। यह सर्वविदित है कि जिनका इतिहास नहीं होता, उनकी न तो आवाज होती है, न उन्हें अधिकार प्राप्त होते हैं और न ही सत्ता में भागीदारी होती है। इसी का परिणाम है कि देश में आजादी के आठवें दशक में भी कोई वंचित इस देश का प्रधानमंत्री नहीं बन पाया है। मानगढ़ धाम में शहीद होने वाले आदिवासियों की संख्या जालियावाला कांड से कई गुणा अधिक रही है फिर भी इतिहास ने मानगढ़ में शहीद होने वाले आदिवासियों की शहादत को नजरअंदाज करते हुए वंचित तबके की इतिहास में अवहेलना की है।
देश की मुख्यधारा कहे जाने वाले वर्ग का यदि हाशिए पर रह रहे लोगों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है तो उसमें भारी अन्तर पाया जाता है। चूंकि अध्ययन की तुलनात्मक पद्धति एक वैज्ञानिक पद्धति है, तुलना सदैव समस्तरीय व्यक्ति, वस्तु, पद, स्थान, वर्ग इत्यादि में होती है। अतः वंचित वर्ग को समस्तरीय बनाने के पश्चात् ही तुलना किया जाना समीचीन होगा।
वंचित वर्ग की हिस्सेदारी राजनीति हो या अन्य सभी क्षेत्रों में समान होनी चाहिए। मतदान करने, चुनाव में खड़े होने, सत्ता में भागीदारी करने, नीति निर्माण से लेकर निर्णयन प्रक्रिया में पूरी सहभागिता होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि 1952 से लेकर आज तक क्या प्रत्येक स्तर, पद पर सभी की समान भागीदारी रही है, इसका उत्तर देते हैं तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी कि वार्ड पंच के पद से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद पर वंचित वर्ग कितना उपेक्षित, तिरस्कृत एवं अछूता रहा है। कई बार ऐसा अवश्य हुआ है कि प्रधानमंत्री के पद के बजाय उप प्रधानमंत्री बना दिया गया परन्तु भारतीय संविधान में उपप्रधानमंत्री और राज्यों में उपमुख्यमंत्री पद का कोई उल्लेख नहीं होता है। जब संविधान में उल्लेख ही नहीं है तो वह शक्तिविहीन होता है। कई बार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे पदों पर अवश्य इस वंचित वर्ग के लोगों को अवसर मिला है परन्तु ये पद केवल राजनीतिक लाभ लेने की मंशा से दिए जाते हैं। इन पदों पर आसीन रहे अधिकतर लोगों की स्थिति दयनीय ही रही है। वर्तमान समय में राष्ट्रपति के पद को अत्यंत कमजोर बना दिया गया है। राष्ट्रपति को तो सरकार की कठपुतली बना दिया गया है। अक्सर देखा जाता है कि लोग प्रधानमंत्री के नाम से सरकार को इंगित करते हैं जैसे मनमोहन सरकार, नेहरू सरकार, इन्दिरा गांधी सरकार, मोदी सरकार इत्यादि जबकि इसको भारत सरकार से इंगित करना चाहिए। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में निर्वाचित, नामित एवं चयनित सदस्य होेते हैं, यह व्यवस्था वंचितों को उपेक्षित करती है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्रित्व काल में भारत सरकार ने देश की सर्वोच्च एवं प्रतिष्ठित सेवा कही जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी पीछे के रास्ते से भर्ती का रास्ता निकाल लिया है और लगातार बिना किसी परीक्षा एवं साक्षात्कार के अपने लोगों को लैट्रल एंट्री द्वारा संयुक्त सचिव के पद पर नियुक्त करने की परिपाटी प्रारंभ कर दी है। ऐसे में जो होेनहार, प्रतिभावान उम्मीदवार कहां जायेंगे? और हो सकता है आने वाले समय में संघ लोक सेवा आयोग की आवश्यकता ही न रहे। ऐसे में वंचित तबका सर्वाधिक प्रभावित भी है और सरकारों का लक्ष्य भी इनको प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से दूर रखने का है। आज देश में काले कृषि कानूनों के खिलाफ जब किसान आवाज उठा रहा है तो उसे देशद्रोही कहा जा रहा है और देश की सरकार लोकतंत्र का गला घोंट कर किसानों की आवाज को दबाने पर आमाद है। दससे सरकारों की वंचित विरोधी धारणा मुखरित होती है।
देश मंे सामाजिक व्यवस्था के ताने बाने में फंसे तबके के लोग समाज में उपेक्षित, तिरस्कृत, बेइज्जत, शोषित, पीड़ित, प्रथाओं, परम्पराओं एवं कुप्रथाओं का शिकार होते रहे हैं। समाज को अनेकानेक प्रकार से वर्गीकृत कर एकीकृत से विभाजन की ओर धकेलने के प्रयास प्रारम्भ से ही हो रहे हैं, हालांकि इस चाल को आज तक भी लोग पूरी तरह समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि मुख्यधारा के लोग इस प्रकार के हथकण्डे अपनाते रहे हंै जिसके चक्रव्यूह में फंस कर बाहर निकलने का मार्ग ही नहीं ढूंढ पा रहे हैं। वंचित वर्ग में समाज के स्तर एवं उनके प्रकार इतने अधिक हैं कि उनमें सामंजस्य बैठाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने पूना पैक्ट में कहा था- ज्ीमतम ेींसस इम ेमंजे तमेमतअमक वित जीम कमचतमेेमक बसंेेमे वनज व िहमदमतंस मसमबजवतंजमे (अर्थात् सामान्य निर्वाचक मण्डल की सीटों में वंचित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण होगा) परन्तु इससे वंचित वर्ग की एकता और मजबूती होगी, इस बात को ध्यान में रखकर अनु.जाति /जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि में आरक्षण का विभाजन कर दिया गया और यहां तक ही नहीं आरक्षण का बंटवारा जातियों तक कर दिया गया है जिससे आरक्षित एवं वंचित वर्गों में कभी एकता एवं अपनी वास्तविक ताकत का संयोग नहीं हो।
जब बाबा साहेब ने कभी जातिगत आरक्षण की बात ही नहीं की तो क्यांे बेकार में इस विकृत आरक्षण व्यवस्था को बाबा साहेब की देन बताते हंै। बाबा साहब तो इनकी चालाकी, धोखेबाजी को समझते थे और भविष्य की चिंताओं को ध्यान में रखकर बातें कर रहे थे परन्तु उनकी बातों को सिरे से ही नकारा गया जिसके परिणामस्वरूप आज वंचित वर्ग अनेक धड़ों में बंटा हुआ है।
अब जबकि देश में जातिगत आरक्षण व्यवस्था विद्यमान है, उसमें भी दरार पैदा करने दलाल एवं ठेकेदार पूरे देश में पूरी ताकत से काम कर रहे हैं। कभी अनुसूचित जातियों में, कभी अनुसूचित जनजातियों में ,कभी अन्य पिछड़ी जातियों को लड़ाया जाता है और कभी उनके अन्तर्गत आने वाली जातियों में भ्रम पैदा किया जाता है कि अमुख जाति वाले आपका आरक्षण खा गए अथवा आपके अधिकारों को हड़प गए हंै जबकि वास्तविक तथ्यों से उन्हें अनभिज्ञ रखते हंैं और उसके अनुपात में ही उनको लाभ दिया जा रहा है। जब तक वास्तविक तथ्यों एवं आंकड़ों से रूबरू नहीं होंगे, वंचित वर्ग दिशाहीन होता रहेगा।
भारतीय संस्कृति की पहचान पूरे विश्व में अलग ही है। यहां विविधता मंे एकता का बेहतर तालमेल है। यहां क्षेत्रीय, प्रांतीय, वर्गीय, जातिय, भाषाओं इत्यादि संस्कृति विविधताओं से सरोवार है। हमारे देश में प्रत्येक मील पर सांस्कृतिक भिन्नताएं हैं और वह ज्ञान से परिपूर्ण है। लोक कलाएं, नृत्य, कथाएं, गीत एव संगीत के अवसर भी है। परन्तु दलित, दमित, वंचित वर्गों की कलाओं को न तो तज्जवो दी जाती है और न ही उनका संरक्षण करने की दिशा में कारगर कदम उठाए जाते हैं बल्कि उनकी स्थिति दयनीय बनी हुई है। यह अवश्य है कि जब किसी विशिष्ट मेहमान को या नेता या प्रशासक को उनकी कलाओं से खुश करना हो तो वंचित वर्गों के कलाकारों को अंग प्रदर्शन एवं इससे भी आगे के लिए मजबूर किया जाता है।
प्रकृति पर सभी का समान अधिकार होता है तथा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी मानव हित में किया जाना चाहिए। परन्तु वंचितों को जल, जंगल और जमीन से खदेड़ा जा रहा है, उनको अपने घरों एवं संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है। वंचित तबका अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की लड़ाई के जूझ रहा है। जो जंगल के मालिक थे, वे ही आज अपना चूल्हा जलाने एवं पेट भरने के लिए उनसे वंचित हंै। पहाड़, नदियाँ, पेड-पौधों एवं अन्य संसाधनों पर पूंजीपतियों का एकाधिकार होता जा रहा है। सरकारें भी रसूखदारों के लिए जी तोड़ मेहनत कर रही हंै। जिसका खामियाजा वंचित तबके को भुगतना पड़ रहा है। प्रकृति के संरक्षण एवं सन्तुलन का कार्य वंचित तबका करता है जबकि उसका विदोहन एवं उसको विरूपित पूंजीपतियों एवं रसूखदार लोग करते हैं और प्राकृतिक असंन्तुलन का काम करते हैं। आज ग्लोबल वार्मिंग की जो समस्या खड़ी हुई है उसका कारण भी प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ एवं प्रकृति के साथ धोखा कल कारखाने स्थापित करने वाले उद्योगपति, पंूजीपति करते हंै। आदिवासियों ने सदैव प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण एवं अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संजाए रखने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर किया है और राष्ट्रहित में सदैव अपनी जान पर खेल कर अदम्य साहस का परिचय दिया है परन्तु उन्हें वह न तो सम्मान मिला है और न ही स्थान जिसके वे वास्तविक हकदार हैं।
वंचित वर्ग के लोगों के प्रति एक ऐसी अवधारणा का दुष्प्रचार किया गया है जैसे वे तो पैदा ही दूसरांे की बेगारी करने के लिए हैं, दूसरों का हुक्म बजाने के लिए हुए हंै। पंूजीपति, अभिजात्य एवं रसूखदार लोग वंचितों को घृणित दृष्टि से देखते हंै और मानते हंै कि उनका जन्म ही घृणित कार्योंं को करने के लिए हुआ है। यहां एक उदाहरण देना उचित होगा- सेवानिवृत्त अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक स्व. श्री चन्दनमल नवल ने ‘शहीद राजाराम मेघवाल’ नामक पुस्तक में यह बताने का प्रयास किया है कि मेहरानगढ़ दुर्ग को मजबूत, अजेय एवं अभेद्य बनाने के लिए राजाराम मेघवाल, उनकी पत्नी एवं बेटे को जिन्दा किले की नींव मंे चुन दिया गया। इससे बढ़कर अमानवीयता दूसरी नहीं हो सकती। अब प्रश्न उठता है कि क्या इससे मेहरानगढ़ खण्डित नहीं हो गया, क्या एक दलित के स्पर्श से किला अछूत नहीं बना?
भारत में सभी धर्मों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। हमारे देश में किसी भी धर्म को मानने या नहीं मानने के लिए किसी प्रकार के कोई दबाव या प्रभाव का प्रावधान नहीं है। भारतीय संविधान में पंथ निरपेक्ष राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया गया है परन्तु व्यावहारिक स्थिति में भिन्नताएं पायी जाती हैं। भारत में सर्वाधिक लोग हिन्दु धर्म को मानने वाले अवश्य हैं परन्तु वास्तव में वे सभी हिन्दू नहीं हैं। इसी प्रकार मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई , जैन, बौद्ध धर्मों की स्थिति है। समय एवं परिस्थितियों ने लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए तैयार किया या उकसाया गया अथवा दबाव बनाकर परिवर्तन करवाया गया। धर्म परिवर्तन का भी अधिकांश प्रभाव वंचित तबके के लोगों पर ही पडा क्योंकि इनकी सामाजिक- आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति को कमजोर बनाए रखा गया और उस कमजोरी का फायदा उठा कर येनकेन प्रकारेण धर्म परिवर्तन करवाया गया।
भारतीय समाज पुरूष प्रधान रहा है और समय के साथ महिलाओं की स्थिति में बदलाव आते रहे हंै। हम केवल इन दो की ही बात करते हैं परन्तु तृतीय लिंग (किन्नर) को सदैव उपेक्षित करते रहे। जब बात महिलाओं सेे संबंधित मुद्दों, कार्यक्रमों, नीतियों अथवा कानूनों की करते हंै तब न तो महिलाओं को उनमें सहभागी बनाया जाता है और न ही उनकी राय ली जाती है बल्कि उन पर निर्णय थोपे जाते हैं अतः शासन -प्रशासन, आरक्षण, समाज आदि प्रत्येक स्थान पर महिलाओं के साथ दोहरा बर्ताव करते हुए नजर अंदाज किया जाता है। महिलाओं को उपभोग की वस्तु के रूप में देखते हैं तथा केवल दैहिक आकर्षण तक ही उसकी महत्वता समझते हैं।
वंचित तबके की अवहेलना केवल उक्त वर्णित बिन्दुओं तक ही सीमित नहीं रहती, इसमें चाहे विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी वंचना हो, शैक्षणिक वंचना हो, सेवायी वंचना हो, आधारभूत संरचनात्मक वंचना हो या कोई अन्य वंचना, सभी से वंचित वर्ग उपेक्षित एवं कमजोर रहा है। इसके लिए मानसिकता को बदलना होगा तथा साथ ही भेदभाव, जाति, वर्ग, क्षेत्र जैसे संकीर्णतावादी विचारों से उठकर देखना होगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय सिविल सेवा की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है परन्तु आज तक इसका गठन नहीं होना, संवैधानिक प्रावधानों की खुली अवहेलना है। सामाजिक समानता एवं सामाजिक न्याय की विचारधारा की विरोधी ताकतों द्वारा अनुच्छेद 312 की पालना आज तक रोक रखी है और जिसका एक मात्र कारण है कि देश की न्याय व्यवस्था के प्रमुख स्तम्भ सर्वोच्च न्यायालय एवं राज्यों के न्यायालयों में न्यायाधीश एवं मुख्य न्यायाधीश जैसे पदों पर वंचित वर्ग के लोग नहीं आ सकें। इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अभिजात्य वर्ग का एकाधिकार है और बाकी सभी को वंचित रखने की मानसिकता है।
वंचित वर्ग को मुख्यधारा में लाने एवं बराबरी का दर्जा मिलने का अभी स्वप्न ही बना हुआ है और इसके लिए समावेशी विकास का माॅडल बनाकर उसको क्रियान्वित करना होगा। सोच और विचारधारा में व्यापकता लानी होगी। कठोर परिश्रमी, पीड़ित, शोषित, दबे कुचले, दलित, दमितों की आवाज को सुनना होगा, तभी हम सही अर्थों में मानवता का कल्याण कर सकेंगे।
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