Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मैं बिकती नहीं

 

“मैं बिकती नहीं”
(राही-कलम संवाद)
लिख रही  थी अपनी धुन में,
मिल गया मुझको  सिपाही।
सीने पर उसके जा पहुँची,
प्रसन्नता से तब हरषाई।
देख उसके  वक्ष-भूषित,
पूछ बैठा मुझसे  राही।
लग तो तुम  अच्छी  रही  हो
पर यहाँ तुम  क्यूँ हो आई?
लेखकों के पास जाओ
ये जगह  तुमको क्यूँ  भायी?
  मैं  भी इठला कर के बोली
  इक सिपाही के अलावा,
  कहीं और मैं फबती नहीं, 
  लेखकों से  आजकल
  पहले सी जमती नहीं।
  हूँ “ कलम” तो क्या हुआ?
  “जनाब, मैं  बिकती नहीं”...

फिर सिपाही ही चुना क्यूँ?
क्या नहीं कोई और ठिकाना?
आश्चर्य  मुख पर था नहीं,
मारा राही ने यूँ  ताना।
  बस इन्हीं पर है भरोसा,
  अन्य  ना रिश्ता निभाना।
  रक्षकों ने बेचा होता
  करके हस्ताक्षर मुझे तो,
  “भारतीय सत्ता” दिखती नहीं 
  जो है बैठे भ्रष्टाचारी,
  अब मैं  वहां  टिकती नहीं ।
  हूँ  “कलम” तो क्या  हुआ?
  “जनाब, मैं  बिकती नहीं” ।

ये तो अधिक लिखते नहीं है!
यहाँ तुम्हारा क्या है काम?
इस बार विस्मित हो पूछता था
राही मुझसे ये सवाल ।
तुम नहीं हो शस्त्र कोई,
जाओ! करो, कहीं आराम।
  प्रहरी के ना काम आऊँ,
  इनसे फिर  भी है सरोकार ।
  ‘वक्ष’ सीमा प्रहरी का ये,
  सेज, शैया , सिर का ताज।
  इस स्थान  के अतिरिक्त मैं ,
  कहीं  गर्व अनुभव करती नहीं ।
  हूँ  “कलम” तो क्या  हुआ?
  “जनाब मैं बिकती नहीं” ।
           लेखिका- डॉ  ज्योति स्वामी ‘रोशनी’

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ