अवनि अंबर बीच
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अवनि अंबर के बीच में, पले प्रीत है रोज
दोष किसी का नहीं है,यह तो मन की खोज
लखे धरा जब गगन को , पहने दुरीय लाल
लाल रक्तिमा देख कर, फंसती उसके जाल
दिन भर विचरे साथ में ,वापस लौटे शाम
रिश्ता ऐसा गहन हो , जिसका नाहीं दाम
हिमगिरि जैसा उच्च हो , सागर जैसी थाह
दिल से दिल का मेल हो ,देख भरे बस आह
वानी कोकिल मधुर हो, प्रीति ढलेगी ओज
अवनि अंबर के बीच में, पले प्रीत है रोज
प्रकृति का है नियम जो, करती नहीं दुराव
सूत्र नेह के बँधे है , चरा अचर के भाव
आसमान से धरा तक, दूरी है बेजोड़
फिर भी पलता प्रेम है ,बिना किसी की होड़
मेघ प्रेम बारिशें कर , अर्पण करता आप
भर कर भू आगोश में, रोज मिटाती ताप
प्रेम नाम प्रति दान का, होता तभी विकास
अगर नही समभाव तो,मिलता बस उपहास
इसी लिए तो रहेगी , प्रेम प्रिया में मौज
अवनि अंबर के बीच में, पले प्रीत है रोज
डॉ मधु त्रिवेदी
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