Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जमींदोज़ पुरखे

 

जमींदोज़ पुरखे

देखो!

मेरे पुरखे

दब गए हैं

कहीं

यहीं कहीं

 

यहाँ वट था

वहाँ झरना था

नीचे तलछट था

प्रभात में संवहनशील मलय था

नीम के घर में गोरैये थे,

बादलों की छत के नीचे

कुलांचे मारते गीध थे,

नीचे आँगन था

हहराते प्रदेश का 

देखो!

मेरे पुरखे

दब गए हैं

कहीं

यहीं कहीं

 

यहाँ उनचास योजन तक 

विस्तारित हैं

बेढब मॅाल 

जिनके कदमों के आगे

हजारों मील तक बिछे हैं

तारकोली कारपेट

और उनके नीचे चींख रहे हैं

कुलबुलाते जंगलों के शव

 

देखो!

मेरे पुरखे

दब गए हैं

कहीं

यहीं कहीं

जहाँ सोंधी शामें थीं

झरबेरी के घोसलों में

ग़ज़ल गाते बया थे

आम्र-उद्यानों में नृत्यरत कोयलों की

छेड़ी गई पंचम रागनियाँ थीं

जहाँ वृक्ष-स्तंभों पर टिकी

हरियाली छत के नीचे

बाल-गोपालों के लिए

सजीले बरामदे थे

वहाँ ब्रोकर-ट्रेड मार्केटों के नीचे

चिर-निद्रा में सोए हुए हैं

हमारे पुरखे

जो कभी न जग पाएंगे

किसी एकाध कवि के गुहार पर,

उफ़्फ़! मेरे पुरखे

कैसे भूगर्भीय शिलाओं में

चिपट गए हैं

यहाँ-वहाँ

जहाँ-तहाँ

 

देखो!

मेरे पुरखे

दब गए हैं

कहीं

यहीं कहीं।


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