पानी के लिए...
अरे सुनो! गंगा
अमेजन, नील
और ह्वांग-हो!
तुम्हें ही डिहाइड्रेशन नहीं हो रहा है
हमारी आँखों का पानी भी
सूखता जा रहा है
हमने सोचा था मायूस होकर--
तुम्हारे जलशून्य होने पर
गुजारा करेंगे हम
अपनी आँखों का पानी पीकर
पर, हाय!
दन्त्य-कथा में परिणत हो चुकी
वियोगिनियों की
गंगा-जमुना बहाने वाली आँखें
पहले ही गुम गईं हैं
काल-चक्र की
मिथिकीय द्रुत रफ़्तार में,
और बची-खुची भावुक-ह्रदय आँखें भी
पथरा गई हैं
आपत्तिजनक बदलावों के
शुष्क बयार में
उफ्फ!
किस भगीरथ को गुहारूं मैं
कि वे अपनी तपस्या से
शिव को विवश कर दें
एक नई गंगा बहाने के लिए,
अब न भगीरथ आएँगे
न शिव ही,
आखिर, कहाँ से लाएंगे
वे पानी?
हिमालय के वक्ष पर
लू के प्रेत आग उगलने लगे हैं,
अमेजन की घाटियों में
दानवाकार लपटों के पेड़ों पर
शोलों के फल लदने लगे हैं
एक गंभीर प्रश्न है--
अब प्रलय क्यों आएगा पानी से?
और गरल गैसों में घुटकर ही
संसार कालकवलित होगा,
शेषनाग को चेता दो--
कि वे मिथ्याभिमान त्याग दें
कि वे पानी में डुबो-डुबोकर
पृथ्वी को मारेंगे
आवेश में।
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