अभिलाषा का दीप जलाये ,
तुमको ढूढ़ रहा हूँ ,
हे बुध्द भगवान ,
परमार्थ भूल गया ,
आज का इन्सान।
इंसानियत का चोल ,
है ,
छल-बल का,
अस्त्र थाम चूका है।
जाति -धर्म के नाम ,
सब कुछ जल रहा है वैसे,
असाध्य रोगी जिंदगी के लिए ,
तड़प रहा हो जैसे।
भगवान् बुध्द, महावीर,ईसा ,
एक बार साथ लौट आओ ,
समता की बुझती ,
ज्योति जला जाओ
………. डॉ नन्द लाल भारती
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