अजनवी तो नहीं पर,
हो गया हूँ ,
वही,
जहां बसंत खो रहा है ,
जीवन का।
शहर की तारीफ अधिक भी ,
कम लगाती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जीवन निचोड़ कर जहां से
कुछ खनकते सिक्के पाता हूँ ,
जहां पद की तनिक
ना पहचान ,
वही घाव पर घाव पाता हूँ ।
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है
वही।
बूढ़ी श्रेष्ठता का,
मान रखने वाले,
परखते हैं ,
अपनी तुला पर
और
बना देते है
निखरे कद को अजनवी।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकूंन से जी रहा हूँ
शहर पहचान की छांव में
यही मेरा सौभाग्य है।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
ना मैं इस शहर के लिए
अजनवी
……… डॉ नन्द लाल भारती
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