Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बदनसीब पुत्र की डायरी

 

पिता की तुला पर बदनसीब खरा नहीं उतर पाया
विफलता कहे या सफलता पुत्र नहीं समझ पाया।
पिता की चाह थी श्रवण बनकर जमाने को दिखा दे
पुत्र भी चाहता था कि पिता की हर इच्छा पूरी कर दें।
पर पुत्र ने होष सम्भालते विरोध की षपथ ले लिया था
पिता की ऐसी इच्छी नही जिससे मान बढ सकता था।
लोग हंसते पिता षिकायत करता पुत्र मौन रहता
पिता के स्वस्थ रहने का हर बन्दोबस्त करता था।
षराब और कबाब के आदी पिता ने जंग छेड़ दिया था,
पुत्र की कोषिष रहती पिता तन मन से खुष रहें सदा।
पुत्र का सद्संस्कार पिता का जैसे विद्रोह बन गया था
पिता स्व-इच्छा को सर्वोच्च,पुत्र को नालायक कहता था ।
पुत चिन्ता-लोक-लाज-सभ्यसमाज में जीने को विवष था
पुत्र संघर्शरत् पिता को षराब और कबाब सर्वप्रिय हो चुका था।
रिष्ते की कसम नषे के षौकीन पिता को तनिक भान न था
पुत्र के खिस्से के अनगिनत छेद, बीमारी का गम ना था ।
सदाचारी,कर्मयोगी पुत्र,पिता की नजरों में नालायक था,
वादे का पक्का पुत्र कुनबे के भले के लिये जी रहा था।
जीवन में मुटठी भर आाग,जमाना पुत्र को सफल कहता था
पिता की जिद ने स्वयं को तन से अक्षम बना दिया था।
जिद ने पिता को तन से अक्षम बना दिया था
स्तब्ध,संघर्शरत् पुत्र की हर तरकीबे फेल हो चुकी थी।
वक्त के साथ पुत्र कर्मपथ पर चलने को विवष था
जमाने की निगाहों में सफल पिता की निगाहों में फेल था
फर्ज पर फना, जीता हुआ पुत्र हार मान चुका था।
ये कैसी बदनसीबी क्या गुनाह,पुत्र सोचने को विवष था
यह हृदय विदारक दास्तां बदनसीब पुत्र की डायरी के
एक पन्ने पर अश्रु से लिखा हुआ था ।

 

 

 

डाॅ.नन्दलाल भारती

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