बहू( कविता )
बहू तुम कितनी सुन्दर हो
तुम त्याग की मूरत
समरपण की सूरत हो
तुमने परायों को सगा बनाया
सगो को बार बार भूलाया
सच बहू तुम कितनी सुन्दर हो ....
तुम्हारा समरपण ही तो है
तुम ससुराल को उध्दारक
सास ससूर को धरम के,
मांता पिता
पति को परमेश्वर माना
देवर ननद को भाई बहन
वाह बहू घर को देवस्थान बनाया
सच बेटी बहू के रूप मे
अति सुंदर हो........
बहू तुम्हारे गुण तुम्हारी मां की
विरासत है
यही पारिवारिक संस्कार
तुम्हें अग्रिम पंक्ति मे खड़े करते हैं
तुम्हारा कुसुमित जीवन
तुम्हारे मांता पिता का पुरस्कार है
तुम्हारे लिए दुनिया की बड़ी पूंजी भी......
तुम नसीब वाली हो बहू
तुम्हारे मांता पिता ने तुम्हें
शिक्षा और पारिवारिक दीक्षा देकर
बना दिया तुम्हें अनमोल
कुछ दुर्भाग्यशाली बहू भी है
नहीं चाहती उनकी बेटी
अच्छी बहू बने.............
सच ठग मांताऔर मतलबी बाप
अर्थात विषधर मां बाप की
विषकन्यायें
ससुराल मे पांव रखते ही
कर देती हैं डंसना शुरू
सास-ससूर आंसू के समन्दर से
उबरने की अभिलाषा मे कहते
बहू की मां होती संस्कारी तो
बहू ना होती अत्याचारी.....
बहू समझ लो सुखी जीवन की परिभाषा
मत छीनों सास ससूर की आशा
पति को लूटकर भर रही जो
मां बाप के कोठे,
हो जाओगी एक दिन बेदखल
हो जाओगी साबित खल.......
तुम अच्छे मां बाप की होती बेटी
ससुराल रूपी बगिया को संवारती
सजाती,
घर परिवार की लाडली होती
काश अच्छे मां बाप की बेटी होती बहू
तुम और तुम्हारी बगिया कितनी
सुन्दर होती .......
डां नन्द लाल भारती
01/11/2019
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