इकतीस दिसम्बर की आखिरी और पहली जनवरी की प्रथम अर्धरात्रि में नन्दन के घर एक नन्हे फरिश्ते का अवतरण हुआ । बच्चे के रोने की आवाज सुनकर नन्दन के मन में आतिशबाजी होने लगी । कुछ देर के बाद रमरजी काकी घर में से बाहर निकली । नन्दन आगे बढकर काकी का पांव छुये ।
रमरजीकाकी-खूब तरक्की कर बेटवा, बेटा हुआ है ।
चैथी औलाद बेटा के सुनते ही नन्दन के दिल से बोझ उतर गया । नन्दन बच्चे का नाम हरी रखा । नन्दन हरी को पढा लिखाकर दरोगा बनाने का सपना देखने लगा पैदा होते से ही। वह भी ऐसे समय जब आजादी की जंग के शोले हर कान पर दस्तख्त देने लगे थे परन्तु भयावह मुर्दाखोर जातिवाद व्यवस्था का आतंक भी चरम पर था । छोटी जाति के लोगो के साथ मुर्दाखोर किस्म के लोग तो जानवर से भी बुरा व्यवहार कर रहे थे । दुर्भाग्यवस ऐसे समाज में नन्दन भी आहे भर रहा था । गरीबी एवं दयनीय सामाजिक स्थिति के बाद भी वह हिम्मत नही हारा । हरी का नाम स्कूल में लाख मिन्नतियां कर लिखवा दिया जबकि उसकी जाति के बच्चों का अघोशित रूप से स्कूल में प्रवेश बन्द था । हरी को भी स्कूल में बहुत मुश्किलें आयी । अछूत जाति का होने के नाते उसे कक्षा में सब बच्चों से पीछे बैठाया जाता था । जहां मास्टर साहब की आवाज भी नही पहुंच पाती थी । स्कूल में पीने तक के पानी को उसकी परछायीं से दूर रखा जाता था । लाख मुश्किलें उठाकर भी हरी हिम्मत नही हारा अन्तत- बारहवीं की परीक्षा अव्वल दर्जे से पास कर लिया पर आर्थिक कारणों आगे की पढाई रूक गयी । हरी साल भर कलकत्तें में पटसन की कम्पनी में छोटा मोटा काम किया । सरकार नौकरी पहुंच से दूर जाती देखकर वह राजधानी आ गया । राजधानी में साल भर की बेरोजगारी झेलने के बाद पुलिस की नौकरी मिल गयी । नौकरी का समाचार सुनकर हरी के परिवार में खुशी की लहर दौड़ पड़ी ।
समय के साथ हरी आगे बढते रहे पुलिस की नौकरी में तरक्की करते करते दरोगा हो गये और उलझे हुए मामलेां को सुलझाने में उन्हे महारथ भी हासिल हो गया । हरी को लोग बड़े आदर से हरी बाबू कहते । हरी बाबू की ईमानदारी के चर्चा सबकी जबान पर होते । हरीबाबू ने कई बड़े बड़े और उलझे मामले सुलझाये । एकाध बार सस्पेण्ट भी हुए पर सच्चाई के पथ से विचलित नही हुए ।
एक दिन हरीबाबू थाने से काफी दूर भीड़भाड़ वाले से छुट्टी के कदन सादी ड्रेस में गुजर रहे थे । एक व्यापारी बचाओ बचाओ चिल्ला रहा था । कोई भी उसकी मदद के लिये आगे नही बढ रहा था । दो आतंकवादी लूटेरे दिनदहाड़े व्यापारी की तिजोरी छिन रहे थे । व्यापारी लहूलुहान था पर तिजोरी नही छोड़ रहा था । व्यापारी के चिल्लाने के आवाज हरीबाबू के कानों में पड़ी वह ललकारते दौड़े और एक आतंकवादी को दबोच लिये । अब क्या था आतंकवादी व्यापारी को छोड़ हरीबाबू पर टूट पडे। आतंकवादियो ने दरोगाजी के उपर दनादन पच्चास से अधिक बार छुरे से वार कर दिये । दरोगाजी हरी बाबू का शरीर झलनी हो गया । जांघ की नशे कट गयी । हरी बाबू हिम्मत नही हारे वे एक आतंकी पर कब्जा कर लिये । बड़ी चालाकी से आतंकी के छुरे आतंकी का पेट फाड़ दिये । वह वही स्पाट पर मर गया । हरीबाबू लड़खड़ा कर गिरने लगे तब तक दूसरा आतंकी वार कर बैठ संयोगबस वह भी दरोगाजी की गिरफ्त में आ गया, उसके भी पेट में छुरा दरोगा जी ने घुसा दिया पर आतंकी पेट दबाकर भाग निकला और दरोगाजी अधमरे वहीं तड़पते रहे । कोई भी आदमी दरोगाजी को न तो अस्पताल तक ले जाने की और नही एक फोन करने की हिम्मत जुटा पाया । घण्टो बाद एक ठेलेवाले ने ठेले पर लादकर अस्पताल पहुंचाया । कई दिनों तक दरोगाजी मौत से जूझते रहे । इस बीच बीस बोतल खून चढ गया । अन्तत- दरोगाजी ने मौत पर भी विजय पा लिया । दरोगाजी के बहादुरी के चर्चे समाचार पत्रों के पन्नेां पर खूब जगह पाये । दरोगाजी को बहादुरी का श्रेप्ठ पुरस्कार मिलना चाहिये था पर नही मिला । हां राजधानी के क्षेत्र विशेप को आतंकियों से निजात जरूर मिल गयी । हफ्ता वसूली करने वालों और आतंक मचाने वालो की हिम्मत टूट गयी । दरोगाजी सदैव निप्ठा एंव ईमानदारी से जन एवं राप्ट्र की सेवा करते रहे । सेवा के दौरान उनकी धर्मपत्नी का देहान्त कैंसर की बीमारी से हो गया । तीनों बेटे अपने अपने परिवार में रम गये । बेटी अपने घर परिवार में खुश थी । दरोगाजी शहर में अकेले रह गये । मुंह बोला बेटा रामलखन अपने फर्ज पर खरा उतर रहा था । पड़ोस में दूर के रिश्ते की साली और उनकी बेटियां रेखा और गीता भी खूब ख्याल रखती थी । दरोगाजी के अन्दर पुत्रमोह कूटकूट कर भरा हुआ था पर पुत्रों को दरोगाजी से नही उनकी दौलत से मोह था । समय अपनी गति से चलता रहा रेखा और गीता का ब्याह हो गया । दरोगाजी रोटी से मोहताज रहने लगे । इसी बीच उनका एक्सीडेण्ट हो गया । पैर की हड्डी टूट गयी । प्लास्टर तो हुआ पर दो दिन में उतरवा दिये क्योंकि देखरेख करने वाला कोई न था । दरोगाजी का रोना देखकर उनके बड़े बेटे ने जर्बदस्ती अपने लिये एक लाचार विधवा दुखवन्ती देवी को जिसका दुनिया में कोई न था अपनी मां के रूप में खोज लाया । बेबस लाचार विधवा औरत की अस्मिता की रक्षा के लिये दरोगाजी ने छाती पर पहाड़ रखकर मंजूरी दे दी । उन्नसठ साल की उम्र में दरोगाजी का पुर्नविवाह हो गया पर जिस बेबस लाचार विधवा दुखवन्तीदेवी पर दया दिखाये थे वह भी दरोगाजी के जीवन में मुट्ठी भर आग साबित हुई। साल भर के बाद दरोगाजी सेवानिवृत हो गये । सेवानिवृत्ति के बाद दरोगाजी दुखवन्तीदेवी को लेकर अपनी बेटी के घर गये । अब दुनिया में सबसे प्यारे दरोगाजी के लिये बेटी दमाद नाती और नातिन थे । दरोगाजी बेटी और दमाद की वजह से तनिक खुश थे । बाकी सभी तो पैसे के भूखे उन्हे नजर आते थे दुखवन्तीदेवी चार कदम और आगे थी। दमाद के पिताजी तो दोस्त पहले और समधी बाद में थे । खूब जोड़ी जमती थी समधी समधी की । दरोगाजी सेवानिवृत्त होकर गांव आ गये । बेटी को फूटी कौड़ी नही दिये । बेटों ने उन्हें निप्कासित कर दिया पर उनकी नजरे उनके चल-अचल सम्पति पर टिकी हुई थी। दुखवन्तीदेवी भी रहरहकर कलेजे में तीर भेंाक देती । दरोगाजी गम को भुलाने के लिये खेतीबारी में दिल लगाने लगे । उनकी मेहनत से अनुपजाउूं जमीन भी अन्न उगलने लगी पर दरोगाजी का स्वास्थ्य साथ छोड़ने लगा । सूरज डूब रहा था दरोगाजी सबसे बेखबर खेत में पसीना बहा रहे थे । दरोगाजी को काम करते हुए देखकर रघु के पांव ठिठक गयेे वह दरोगाजी के पास गया और बोला दरोगाजी क्यो मजदूरों जैसे रात दिन खटतेे रहते हो । अरे ये उम्र काम करने की नही है । आराम करने की है पोता पोती खेलवाओं, बहू बेटों से सेवा करवाओ ।
दरोगाजी बोले- जब तक हाथ पांव आंख ठेहुना सलामत है तब तक किसी का आश्रित नही रहूंगा । रघु जीवन एक जंग है इसे जीतने का प्रयास जब तक सांस है तब तक करता रहूंगा । अब तो हमारे जीवन की दूसरी जंग शुरू हो गयी है ।
रघु-दरोगाजी आपको हाड़ निचोड़ने की क्या जरूरत है । अरे आप तो अपने पेंशन से चार आदमी को और पाल सकते है ।
दरोगाजी-कह तो ठीक रहे हो रघु मेहनत करने में बुराई क्या है ? अभी तो स्वस्थ हूं । काम करने लायक हूं । गरीब मां बाप की औलाद हूं । मैंने बहुत दुख उठाये है । मां बाप को आंसू से रोटी गीला करते हुए देखा है मैंने । मां बाप के आर्शीवाद से कहां से कहां पहुंच गया । आज मेरी औलाद साथ नही दे रही है । बेटे मुझसे दूर होते जा रहे है । क्या यह किसी नरक के दुख से कम है । खैर किसी जन्म के पाप का फल मिल रहा होगा मुझे ।
रघु-दरोगाजी आपकी तबियत ठीक नही लगी रही है ।
दरोगाजी-हां कुछ दिनों से रह रहकर सांस जैसे अटक जा रही है । ठीक हो जायेगा । कोई चिन्ता की बात नही है । चिन्ता तो बस अपनों से है जिसके लिये सपने बुने थे वही दिल में छेद कर रहे है ।
रघु-दरोगाजी मैं भी उस दिन दंग रह गया जब आपके बडें ने आपको बेटी की गाली दी । सफेद रंगे सिर के बाल उखाड़ने तक की धमकी दिया था। वह भी आपके दमाद बेटी नाती और नातिन के सामने । उसे ऐसा नही कहना चाहिये था ।
दरोगाजी-नासमझ है । जब उन पर पडेगी तब याद आयेगी मेरे साथ जो वे कर रहे हैं । वे हमारे लिये नही खुद के जीवन में कंाटा बो रहे हैं । हमारी तो बित गयी है । थोड़े दिन का और मेहमान हूं । देखना यही लोग आंसू बहायेगे । मेरे छोड़े रूपये को पाने के लिये रात दिन एक कर देगें । रूपये और मेरी विरासत तो पा जायेगे पर दिल में कसक तो उठेगी जरूर । अब तो मेरी हिम्मत ही मेरा सहारा है रघु जिस दिन मेरी हिम्मत छूटी मै समझो गया उपर ।
रघु-दरोगाजी ऐसा ना कहो आप तो दीर्घायु होओ और स्वस्थ रहो । अब मैं चलता हूं । देखो अंधेरा छा गया है । आप भी घर जाओ भौजाई राह ताक रही होगी ।
दरोगाजी-दुनिया मतलबी है । घर में तो खौफ डंसता रहता है । खड़ी फसलों के साथ बाते कर मन हल्का हो जाता है । ठीक है । चलो मैं भी चलता हूं । रघु अपने घर की ओर दरोगाजी अपने घर की ओर चल पडे़ ।
दरोगाजी घर आये हैण्डपाइप चलाकर बाल्टी में पानी भरे,हाथ पांव धोये । एक लोटा पानी पीकर खटिया पर बैठे। फिर ना जानो ‘ारीर को कौन सी व्याधि पकड़ ली । दरोगाजी की तबियत बिगड़ने लगी । रात बडी मुश्किल में बिती सुबह होते होते तबियत ज्यादा खराब हो गयी । हालत इतनी खराब हो गयी कि बिस्तर से उठा नही गया ।दो दिन वही बिस्तर पर पड़े पड़े कराहते कराहतें एकदम से टूट गये । बडी़ी मुश्किल से दीवाल के सहारे बैठ पाते । बैठते हीं चक्कर आने लगते । बिगड़ती हालत में बड़बडाने लगे । दरोगाजी की तबियत खराब है कि खबर उनकी बेटी के देवर सत्यानन्द को लगी वह भागकर दरोगाजी को देखने गया । वहां उनकी दयनीय दशा देखकर सत्यानन्द घबरा गया दरोगाजी की तबियत बिगड़ती देखकर सत्यानन्द ने दरोगाजी के छोटे बेटे रामानुज को साथ लेकर अस्पताल में भर्ती करवाया । मर्ज डाक्टरों की समझ में नही आयी । दर्द में बड़बडाते हुए देखकर एक डाक्टर ने तो पागलखाने भेजने तक की सिफारिस कर दी । जबकि दरोगाजी को मस्तिप्क ज्वर था ,दो दिन में जानलेवा हो गया था । डाक्टर बीमारी को नही समझ पाये। दरोगाजी दो दिन अस्पताल में तड़पते रहे इसी बीच बेटा मझला दयानुज शहर से आ गया। दरोगाजी दयानुज से लड़खड़ाते हुए बोले तुम तीनो भाई आपस में लड़ना नही । मेरी चल अचल सम्पति के चार हिस्से कर लेना । तीन हिस्सा तो तुम तीनों भाईयों का होगा और चैथा हिसा तुम्हारी नयी मां का । सत्यानन्द से बोले बेटे दमादजी हृदयानन्द बीटिया सेवामती,नानित सुमन,रूपेश और दिनेश अभी नहीं पहुंचे क्या ? बस दो दिन में इतना ही बोल पाये थे । इसके और कुछ भी नही बोल पाये। जबान पर जैसे ताला लटक गया पर आंखों से आंसू ऐसा बहना शुरू हुआ की रूका नही । सम्भवत- दरोगाजी की अन्तिम इच्छा बेटी दमाद से मिलने की थी हालत और अधिक बिगड़ने लगी तब सत्यानन्द बनारस लेकर भागा । बनारस जाते समय रास्ते में हर जंग जीतने वाले दरोगाजी मौत से हार गये । बड़े बेटे समानुज जो दरोगाजी से झगड़कर चला गया था उसे खबर दी गयी पर वही न आने की जिद पर अड़ा रहा । बेटी दमाद खबर लगते ही पन्द्रह सौ किलोमीटर दूर शहर से दरोगाजी के अन्तिम संस्कार में शामिल होने के लिये चल पड़े ।
मौत के दूसरे दिन दरोगाजी के मृतदेह को सजाया गया । मातमी धुन बनजे लगी पर हजार घर वाले गांव में दरोगाजी के मृतदेह का लंगोट पहनाने वाला कोई न मिला । आखिरकार छोटी उम्र का सत्यानन्द ने अपने हाथों से लंगोट पहनाया । दोपहर ढलने को आ गयी ट्रेन लेट होने के कारण बेटी दमाद नही पहुंच पाये । दरोगाजी की आखिर बाराता ;जनाजाद्ध निकल पड़ा । आगे आगे चार कंधों पर दरोगाजी का मृत देह चल रहा था पीछे पीछे बैण्डबाजा वाले मातमी धुन बजाते हुए । सौभाग्सबस चार कंधों में दो कंधे उनके छोटे और मझले बेटे के ‘ाामिल थे ।बैण्डबाजे को देखकर कुछ लोग छींटाकसी करने से बाज नही आ रहे थे । कुछ लोग कर रहे थे कि दरोगा की दूसरे ब्याह की बारात में भले ही बैण्डबाजा नही बजा तो क्या आखिरी बारात में बीटिया की ससुराल वालो ने तो बजवा ही दिया ।कोई कहता अरे ये जनाजा नही दरोगा के आखिरी ब्याह की बारात निकल रही है । भले ही कुछ लोग छींटाकसी कर रहे थे पर सच्च तो यही था ।
दरोगाजी का जनाजा निकलने के घण्टे भर बाद बेटी दमाद भी आ गये पर जनाजा तो निकल चुका था । काफी मशक्कत के बाद हृदयानन्द और सेवावती श्मशान पहुंचे पर क्या दरोगाजी का मृतदेह गोमती नदी के किनारे आठमन लकड़ी की चिता में भस्म होकर राख हो चुका था । चिता को पांच मटके पानी से ठण्डे किये जाने का कर्मकाण्ड शुरू था । इसी बीच हृदयानन्द और सेवावती ने अश्रुपूरित श्रध्दांजलि अर्पित की । शेष कर्मकाण्ड की प्रक्रिया तनिक देर में पूरी हो गयी । पचतत्व में विलीन दरोगाजी के मृतदेह के अवशेष को गोमती नदी को समर्पित कर दिया गया। चिता एकदम ठण्डी हो चुकी थी । गर्माहट बची थी तो बस चल-अचल सम्पति के बंटवारे को लेकर ।
डां.नन्दलाल भारती
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