माना कि अपनी जहां में ,
भेद- फरेब बहुत दर्द है ,
पार इसके ,
बसंत का हुश्न ,
सर्द कोहरे से ,
छन रही धूप का,
जश्न भी तो है
डॉ नन्द लाल भारती
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माना कि अपनी जहां में ,
भेद- फरेब बहुत दर्द है ,
पार इसके ,
बसंत का हुश्न ,
सर्द कोहरे से ,
छन रही धूप का,
जश्न भी तो है
डॉ नन्द लाल भारती
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