Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बुलौवा

 

खींझचन्द ने स्वर्णिम आभा से दमकते हुए षादी के बुलौवा कार्ड को लिफाफे से ऐसा निकाला जैसे कोई चक्रवर्ती सम्राट म्यान से तलवार और बुलौवा कार्ड को ऐसे दूर फेंका जैसे किसी विशकन्या का बलात्कार कर आंखो से दूर । इसके बाद खींझचन्द विजयी मुद्रा में बोले साहब ने तो मुझे क्षेत्र में दूसरा स्थान दे दिया। यह सुनकर रूपचन्द बोले क्या हुआ ठाकुर साहब फिर प्रमोशन हो गया क्या ?
पंडितजी नही समझे खींझचन्द बोले। रही बात प्रमोशन की तो प्रमोशन तो कभी रूका नहीं देर सबेर तो बांस बन जाउूंगा ।
रूपचन्द-बदलते युग में सब कुछ सम्भव है खींझचन्द,गांठ ढीली करनी पड़ सकती है। आप तो साम दाम और भेद से भी समर्थ है। कोई काम रूका तो नही है। रूकेगा भी कैसे नीचे से उपर तक सभी तो आपके लोग है। अच्छे दिन तो सदैव बने रहे है।
खींझचन्द-क्यों नही रूका,बराबर प्रमोशन हुआ होता तो चीफ मैनेजर बन गया होता। बी.काम टाइपिस्ट मुख्यप्रबन्धक बन गया और मैं खाक छान रहा हूं।
रूपचन्द-आप भी बड़े प्रबन्धक हो,क्यों चिन्ता कर रहे हो ठाकुर साहब, आपसे सीनियर हंसाबाबू थे,उन्हें समय से पहले रिटायर कर दिया,आपका तो धड़ले प्रमोशन हो रहा है,तनख्वाह के साथ दूसरी कमाई भी बढ़ गयी,काश आप जैसी किस्मत सभी की होती। बछन दरवाजे के बाहर बैठे देवराम के बारे में कभी सोचा है, सबसे अधिक पढ़ा लिखा है पर उसका प्रमोशन नही हुआ तो नही हुआ क्योंकि इसकी उपर तक पहुंच नही है,दूसरी बड़ी कमी है कि देवराम छोटी जाति का आदमी है। दुर्भाग्यवश,विभाग में जातीय भेद के चक्रव्यूह का खेल बेखौफ षुरूआती दिनों से चल रहा है। विभाग की नींव ही सामन्तवादी व्यवस्था पर पड़ी हुई है। इसी व्यवस्था का है देवराम। बेचारे के साथ न्याय हुआ होता तो प्रषासन विभाग का हेड होता परन्तु आज तक उसी जातीय चक्रव्यूह की साजिश जारी है।सच किसी ने कहा है समर्थ नहीं दोश गोसाईं।
खींझचन्द-रूपचन्द क्यों भूल रहे हो तुम्हें भी जातीय श्रेश्ठता के बल पर यहां तक पहुंचे हो। जिस दिन दलितों को विभाग में समान मौंका मिल गया तो तुम्हारी नौकरी खतरे में पड़ जायेगी।
रूपचन्द-देखो ठाकुर साहब आपकी सामन्ती नीति की तोड़ तो मेरे पास नही है।
खींझचन्द-मेरे पास भी तुम्हारी चाणक्य नीति का तोड़ नही है।
रूपचन्द-पैतरेबाजी ना करो। प्याज जितना छिलेगे उतना छिलका ही निकलेगा। रही बात देवराम की तो जातिवादी प्रबन्धन ने देवराम के साथ अत्याचार ही किया है। आप तो ये बताओ कि किस साहब ने आपको प्रदेश के दूसरे नम्बर का अफसर बना दिया। खैर आप पहले नम्बर के अफसर बन जाओगे।
खींझचन्द-अपनी मुट्ठी में प्रबन्धन नही है तो क्या कोई काम रूकता नही है।
रूपचन्द-खैर आपका काम कौन रोक सकता है। दूसरे नम्बर का अफसर कौन कैसे कह दिया आप तो प्रथम श्रेणी के अफसर है।।
खींझचन्द-तुम्हारी बिरादरी के अफसर लेवप्रसाद के बेटे की षादी है,षादी के बुलावा कार्ड पर विभागाध्यक्ष के बाद मेरा नाम लिखा है।
रूपचन्द-विभागाध्यक्ष के बाद आप ही तो प्रदेश में है, वैसे भी हर मायने में एरिया के तो आप पहले नम्बर के अफसर हो। लेवप्रसाद साहब ने दूसरे नम्बर का कैसे लिख दिया ? देवराम को तो लेवप्रसाद साहब ने दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया।
खींझचन्द-देवराम की बात कहां से आ गयी रूपचन्द ?
देवराम तीस साल से विभाग की सेवा कर रहा है। लेवप्रसाद के साथ दस साल तक काम किया है और लेवप्रसाद ने उसे ही भूला दिया रूपचन्द बोला।
खींझचन्द-लेवप्रसाद ने देवराम को दोयम दर्जे का आदमी हमेषा समझा,उसके साथ अछूतो जैसा व्यवहार किया। सरकारी जष्नों से देवराम और उसके परिवार को लेवप्रसाद दूर रखने की पूरी कोषिश करते थे।सोचो जरा लेवप्रसाद बेटे की षादी का बुलौवा ऐसे दोयम दर्जे के आदमी को भेज सकते है क्या ?
रूपचन्द-बी.काम पास लेवप्रसाद भी देवराम की तरह मामूली से कलर्क से नौकरी षुरू किये थे जबकि देवराम विभाग में सबसे अधिक पढ़ा-लिखा इंसान है। जातीय आयोग्यता के कारण देवराम मार खा गया वरना लेवप्रसाद जैसे लोग तो देवराम के अधीनस्थ काम करते।
खींझचन्द-देवराम का बहुत पक्ष ले रहे हो क्या बात है ?
रूपचन्द-पक्ष नही ले रहा हूं,देखा जाये तो जातीय दुष्मन है देवराम।युग बदल गया है अपनी रूढ़िवादी मानसिकता भी बदलनी चाहिये। अन्याय को न्याय तो नही कह सकता खीझचन्द। देखो विभाग का हर आदमी मौन ही सही पर मानता है कि देवराम के साथ अन्याय हुआ है।
खींझचन्द-जो होता है अच्छे के लिये होता है।
रूपचन्द-कभी-कभी अपवाद भी हो जाता है मानवीय प्रक्रिया में।
खीझचन्द-क्या कहना चाहते हो ? देवराम को सामन्तवादी विभाग में नौकरी मिल गयी क्या कम है। उसके बच्चे आपके बच्चों से आगे निकल गये जबकि आपसे आधे से कम तनख्वाह उसको मिलती है। सोचो जरा यदि वह बड़ा अफसर होता तो क्या होता ? तुम्हारी छाती पर मूंग दलता। उच्च अधिकारियों ने अच्छा किया उसके पर कतर दिये। इतनी देवराम को अपनी शैक्षणिक योग्यता पर गुरूर था तो विभाग की टाइपिस्ट की नौकरी छोड़ देता।
रूपचन्द-उच्च षिक्षित देवराम टाइपिस्ट की नौकरी नहीं छोड़कर रूढ़िवादी या कहो सामन्तवादी अफसरों के मुंह पर थप्पड़ मारा है। भले ही सामन्तवादी अफसरो ने देवराम की तरक्की नही होने देने की खुषी मना ले।
खीझचन्द-क्या कह रहे हो रूपचन्द ?
रूपचन्द-जरा सोचो इस सामन्तवादी विभाग के इस प्रदेश में सौ लोग काम करते है,पूरे देश की बात नही करता। उसमें दलित कितने है। सिर्फ एक देवराम। देवराम को मौका मिल जाता तो विभाग की वाहवाही होती। देवराम भी जहां जाता विभाग के गुण गाता,अब हाल तो ये होता होगा,नौकरी का नाम आते ही मौन सांध लेता होगा। राश्ट्रीय स्तर पर देखो सभी आरक्शण का विरोध कर रहे है पर हर सरकार दस साल और के लिये सर्वसमिति से आरक्षण बढ़ा देती है। आरक्षण से आरक्षित वर्ग का कितना भला हुआ है। कितने दलितों को आईएसएस /आईपीएस बनने दिया जा रहा है। इस वर्ग के उच्चषिक्षित घबराकर आत्महत्या तक कर रहे है। खींझचन्द आरक्षित वर्ग के लोगों का भविश्य तो अनारक्षितों के हाथ मे है। आजादी के दशकों बाद वे आज भी रोटी आंसू से गीली कर रहे हैं।
खीझचन्द-जीतराम मांझी को क्यों भूल रहे हो रूपचन्द।
रूपचन्द-जीतराम मांझी को पदोन्नति और एक मामूली से दलित कलर्क की पदोन्नति में अन्तर है। खैर मांझी की नईया तो डूबो दी ने सामन्तवादियों ने।देवराम बड़ा अफसर बन जाता तो अपनी योग्यता का भरपूर उपयोग विभाग के भले के लिये करता। दुनिया में जनजागरणककर्ता के रूप में उसकी जयजयकार तो नही होती। कुएं का मेढक बनकर रह जाता।वैसे भी अनारक्षितों की इन्ट्री विभाग में बन्द है,एक आ गया था तो उसकी शैक्षणिक योग्यता का सम्मान विभाग को करना था पर विभाग ने निरापद के भविश्य को फंासी पर चढ़ा दिया।
खीझचन्द-तुम्हारी बात में तो बहुत दम है तभी तो हिटलर भी तुम्हारे पूर्वजों की ढकोसले वाली धार्मिक कूटनीति के आगे बौना हो गया । हालत तो आज ये है उसके परिवार के लोग हिटलर के नाम पर मुंह छिपाते हैं, अपना उपनाम हिटलर भी बदल चुके है । तुम लोगों का अघोशित साम्राज्य कभी खत्म नही हुआ और होगा भी नही। तुम्हारे पूर्वजों ने देश के मूलनिवासियों के साथ छल कर उनकी सत्ता हथिया कर गुलाम बनाने के साथ,छत्तीस करोड़ देवी देवतओं का ऐसा मन्त्र लोगों के कानों में फूंक दिया है कि तुम लोग पूजवाते रहोगे। आरक्षित वर्ग आरक्षण के आक्सीजन पर सांस भरते रहेगा।इनका विकास तब तक सम्भव नही है जब तक इन्हें समानता का सामाजिक अधिकार और जल जमीन और व्यापार पर समान कानूनी अधिकार नही मिल जाता। ऐसा होना इस देश में सम्भव भी नही है। उच्च वर्णिक पोथी वाले सनातन आरक्षणधारी भरपूर दोहन करते रहोगें।
रूपचन्द-ये बात तो है हमारे पूर्वज लाखों साल पहले भी बुद्धिमान थे और आज भी है,उनके विकसित दिमाग की कमाई आने वाली हजार पीढ़ियां भी खाकर खत्म नही कर पायेगी।
खीझचन्द-कैसी तुम्हारी कूटनीति है रूपचन्द एक तरफ तो कह रहे हो तुम्हारी सत्ता खत्म होने वाली नही है। दूसरी तरफ देवराम का पक्ष ले रहे हो।
रूपचन्द-मैंने पक्ष नही लिया है,ढील देकर फन्दा कसने कि बात किया हूं खीझचन्द,जो बात मैंने की है उसका सार इतना है कि देवराम की तरक्की भी हो जाती उसका मुंह भी बन्द हो जाता,वह ये तो नही ना कहता कि विभाग में उसके साथ अत्याचार हुआ है,मेरे कहने का बस इतना सा मकसद है।
खीझचन्द-ना सांप मरे ना लाठी टूटे वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हो।
रूपचन्द-छोटे लोगों की जरूरतें भी छोटी होती है। इनको खुश कर इनका दोहन किया जा सकता है। रूपचन्द के मामले में विभागीय प्रबन्धन से चूक हो गयी। डां.विष्व प्रताप,देवप्रसाद,अवधेशप्रसाद,रामप्रसाद,लेवप्रसाद और दूसरे ने तो देवराम के दमन का ऐलान करके रखा हुआ था। डां.विष्व प्रताप,देवप्रसाद,अवधेशप्रसाद तो रिटायर होने के बाद भी देवराम को डंस रहे है। मोहनसिंहराठौड़ को तो देवराम अपना हितैशी समझ बैठा था पर वे तनिक भी नही चाहते थे। रिटायर होने के एक महीना पहले देवराम के मामले पर क्या बोले थे मालूम है ?
खीझचन्द-मुझे नही मालूम।
रूपचन्द-नये निदेशक के सामने देवराम ने कैरिअर के कत्ल की बात किया था। निदेशक साहब ने अर्जी मंगवाया था। देवराम ने अर्जी भी दिया था पर मोहनसिंहराठौड़ ने डां.विष्व प्रताप, देवप्रसाद, अवधेशप्रसाद, रामप्रसाद, लेवप्रसाद जैसे ही आगे नहीं बढ़ाने की कसम खा लिया था। मालूम है क्या बोले थे ?
खीझचन्द-अरे रूपचन्द हमें क्या पता मैं वहां पर तो था नहीं मुझे कैसे मालूम ?
रूपचन्द-मैं कौन सा था ।
खीझचन्द-पर तुमको मालूम तो है ना । मुझे नही मालूम है। बताओगे तो जान सकूंगा।
रूपचन्द-मोहनसिंहराठौड़ साहब अर्जी को कूड़ेदान के हाले करते हुए बोले थे इस नौकरी से सन्तोश नही है तो नौकरी छोड़ दे देवराम।
खीझचन्द-ये कोई नई बात नही है,ऐसा तो अक्सर सभी अफसरों ने देवराम के मुंह पर बोला है। अवधेशप्रसाद ने तो यहां तक बोल दिया था कि बड़ा अफसर बनने की इतनी लालसा है तो बड़े पद की पट्टी गले में बांध लो जैसे कुत्तों के गले में बंधी होती है।
रूपचन्द-सभी कि बात अलग है पर मोहनसिंहराठौड़ साहब को देवराम के लिये ऐसा बोलना किसी सदमें से कम नही है।
खीझचन्द-देवराम सुनसुनकर ढीठ हो गया है। वह किसी पर विष्वास नही करता होगा। ये साहब किस खेत कि मूली है।
रूपचन्द-नहीं ऐसा नहीं किसी दूसरे अफसर की तारीफ देवराम नही करता पर इस साहब की तारीफ करता है। मोहनसिंहराठौड़ साहब के रिटायरमेण्ट के मौके पर विजयपथ कविता लिखा था। कविता पढ़ा भी था बतौर स्मृतिचिन्ह यह कविता फ्रेम करवा कर साहब को तत्कालीन क्षेत्रीय इंचार्ज ने गर्व के साथ दिया था । ऐसा अफसर इस तरह का डायलांग डिलीवर करे तो शर्म की बात है।
खीझचन्द-चड्डी के नीचे सभी नंगे होते है।
रूपचन्द-ठीक कह रहे हो विभाग के सभी अफसरोें ने देवराम के साथ जातीय दुष्मनी खूब निभाया है। यह तो दिखता है बांस।
खीझचन्द-देवराम को भूल जाओ,कोई विभाग के लिये वह छाती का बोझ हैं,भले ही दुनिया विष्वभूशण का ताज दे दे,विभाग में तो वह है तो मामूली सा टाइपिस्ट ही है ना। फालतू की बातें छोड़ों लेवप्रसाद साहब के बेटे टुन्नू की षादी के बुलौवे का क्या हुआ ?
रूपचन्द-षादी के बुलौवे का क्या हुआ आप भी जानते हो। इतना बड़ा अफसर एक बैलावा कार्ड पर इतने सारे अफसरों का नाम लिख दिया कौन जायेगा। हम सभी अफसर मिलकर एक ईमेल करते देते है टुन्नू की षादी के बुलौवे बदले,इतने में देवराम आ गया। देवराम को देखते ही खीझचन्द ने झिंक दिया और रूपचन्द ने बात का रूख बदल दिया पर देवराम के कान को षादी का बुलौवा स्पर्श कर चुका था।
देवराम-रूपचन्द साहब किस का बुलौवा आ है।
टुन्नू की षादी का रूपचन्द बोले ।
क्या ? टुन्नू की षादी का बुलौवा देवराम आष्चर्यचकित होकर बोला।
रूपचन्द-इतना अचम्भा क्यों हो रहे हो ?
देवराम-इतने बड़े अफसर के बेटे टुन्नू की षादी का बुलावा और मुझे खबर नही लगी। कोई कलेक्षन भी नही हुआ क्या ? पहले तो बड़े अफसरों के बेटा-बेटी की षादी के बुलौवा के बदलेे सोने के हार तक दिये गये है। कब षादी थी ?
खीझचन्द-गुस्से में बोले देवराम तुम तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे तुमको पता ही नही ।
देवराम-सच नही मालूम।
खीझचन्द-तुमको टुन्नू की षादी का बुलौवा कार्ड ने भेजने के लिये खेद माफीनामा ई पत्र तो लिखा है।
देवराम-तारीख स्थान का जिक्र नही है। खीझचन्द जी लेवप्रसाद साहब ने ई खेदपत्र के माध्यम से मुझे अपमानित किया है।
खीझचन्द-इतना बड़ा अफसर एक टाइपिस्ट से माफी मांग रहा अपमान कैसे हुआ यह तो तुम्हारे लिये सम्मान की बात होनी चाहिये देवराम।
देवराम-रिसते जख्म पर बार-बार पड़ते खार को हम अपना नसीब तो नही मान सकते। अपमान और सम्मान में उतना ही अन्तर है जितना नरक और स्वर्ग में। मैं भी शब्दों के मायने समझता हूं। सम्भवतः आपने वह ईमेल पढ़ा है।
खीझचन्द-तुमको कैसे मालूम ?
देवराम-उचित माध्यम से ईमेल जे आया है। वैसे सच्चाई बिन कहे बयां हो जाती है। आपने गौर फरमाया होगा पत्र मुझे नहीं टाइपिस्ट से खेद व्यक्त किया गया है। टुन्नू की षादी सरकारी नही थी इसलिये सरकारी पद से सम्बोधन वह भी वह इंसान जो खुद टाइपिस्ट कभी था वह अपने भारी ओहदे के अभिमान से सम्बोधित करें तो मुझ जैसे इंसान के लिये अपमान ही लगेगा ना खीझचन्दजी।
खीझचन्द-खिझते हुए बोले तुम सोचने को स्वतन्त्र हो,देश आजाद है। आजादी के पहले क्या हाल था अपने बुजुर्गो से पूछ सकते हो।
देवराम-हाल में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है वक्त के साथ परिवर्तन की पूरी उम्मीद है। वह रूपचन्द से मुखातिब होते हुए बोेला कौन सी तारीख का बुलौवा था ?
रूपचन्द-तेइस फरवरी का ।
देवराम-कौन-कौन गये थे ?
रूपचन्द-दिल्ली दूर है देवराम।
आप जैसे अफसरों के लिये तो एक घण्टे का रास्ता है,मुझ जैसे दोयम दर्जे के आदमी के लिये बीस घण्टे का खैर मुझे तो बुलौवा के नाम पर अपमानपत्र आया है देवराम बोला।
खीझचन्द-मुंह चिढाते हुए बोले टुन्नू की षादी का बुलौवा आता तो जाते क्या ?
देवराम-आता तब सोचता । आप गये थे खीझचन्दजी ?
रूपचन्द-अफसोस ना करो देवराम।
क्यों और कैसा अफसोस। लेवप्रसाद साहब ने मुझ अदने को ना बुलाकर अच्छा किया पर ईमेल लिखकर और बुरा देवराम बोला।
रूपचन्द-ईमेल का जबाब दे दो।
देवराम-दे दिया साहब ।
खीझचन्द-क्या ?
देवराम-दूल्हा दुल्हन को षुभकामनाओं के साथ लेवप्रसाद के प्रति कृतज्ञता और क्या ?
रूपचन्द-अपमान पत्र के बदले कृतज्ञता।
देवराम-कोई गलत तो नही ।
रूपचन्द-अपमान के बदले सम्मान दे रहेे हो गलती कैसी ? भले हमारे जातीय भाई है लेवप्रसाद साहब,जब तक इस प्रदेश में रहे हमारे खास रहे पर स्थानान्तरण के बाद सारे सम्बन्ध विसार दिये। टुन्नू की षादी का सभी अफसरों का एक बुलौवा कार्ड । इसे बेकद्री के अलावा और क्या समझा जा सकता है।
जिनके के पास टुन्नू की षादी का सामूहिक बुलौवा कार्ड आया उनकी जूतियां तो गयी ही नही तुम तो लेवप्रसाद साहब की निगाहों में दोयम दर्जे के लोग पहले ही थे अब कहां जाओगे देवराम, खीझचन्द बोलते हुए उठ,े और स्वर्णिम आभा से दमकते हुए शादी के बुलौवा कार्ड को कचरा पेटी के हवाले करते हुए अपने चैम्बर में लांक हो गये।

 

 

 

डां.नन्दलाल भारती

 

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