चमड़े के सिक्कों को चलन में 1325-1350 ई. के बीच मोहम्मद तुगलक लाया था और अपनी राजधानी को दिल्ली-दौलताबाद-दिल्ली करने के कारण बदनाम भी हुआ और आर्थिक रूप से कंगाल भी हो गया था यही कंगाली उसके पतन का कारण बनी थी। ये सब जो हुआ तुगलक के अंधेपन और विवेकहीनता के कारण हुआ। चमड़े के सिक्के का प्रचलन और दिल्ली-दौलताबाद-दिल्ली करवाने वाले जीवित चमड़े के सिक्के अर्थात चम्मचे थे जिन पर राजा तुगलक आंख बन्द कर विश्वास करता रहा होगा। वर्तमान समय में भी अधिकतर शासक-प्रशासक तुगलक के रूप में और चमड़े के सिक्के अर्थात चम्मचे मनमानी तरक्की कर देश समाज को खोखला कर रहे हैं, ईमानदारी, वफादारी,राष्ट्रहित-बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की भावना और कर्मशीलता का खुलेआम दमन कर रहे हैं। इस तरह की मानसिकता विनाश की जड़ साबित होती है परन्तु अभिमान के नशे में हाशिये के आदमी को आंसू देकर उसके हकों पर कब्जाकर और उसकी नसीब को कैद कर स्वयं का हित साधना दबंगता और अमानुषता कही जा सकती है। इतिहास गवाह है यही अभिमान की ज्वाला कंस के सर्वनाश का कारण साबित हुई थी सोने की लंका राख हुई थी। इतना कुछ वक्त की गर्त से आज के आदमी को सचेत कर रहा है इसके बाद भी आज का आदमी पद-दौलत के अभिमान में कमजोर हाशिये के आदमी को कुचलने की ताक में नजरें गड़ाये रहता है भूखे गिद्ध की तरह। ऐसी दबंगता और नंगापन आदमी को हैवान बना देता है, ऐसा नहीं कि वह जानता नहीं है ,सब समझता है परन्तु अभिमान की भड़कती अग्नि,स्वहित और चमड़े के सिक्कों की वाह-वाही में बहकर इतना आगे निकल जाता है कि अपने ईमान और कर्तव्य को खुद रौंद देता है। यह काली करतूत चमड़े के सिक्के का प्रचलन और कर्मशीलता के दमन की भयावह चीत्कार के असहनीय दर्द का घिनौना एहसास है परन्तु दबंगता इतनी निर्मोही हो गयी है कि आदमी के दर्द पर जाम झलकाने लगी है। इस तरह के जाम की टकराहटें इंसानियत, कर्तव्यनिर्वहन,परोपकार काम ही पूजा के भाव को लज्ज्ति कर रही है फिर भी कुछ सच्चे उसूल के पक्के लोग है जो दमन का शिकार होते हुए भी मानव और राष्ट्र हित के हितार्थ की खूबियों को बचाये रखने के लिये खुद को निछावर कर रहे हैं। दबंगता और अभिमान के पोषक कमजोर हाशिये के आदमी के श्रम से उपजी चमक को अपने माथे पर सुशोभित करते हुए उनकी राह में कांटे बोने में लगे रहते हैं। जिस कारणवस कमजोर आदमी तरक्की नहीं कर पा रहा है, उसकी कर्मशीलता,योग्यता और अनेकों खूबियां बौनी हो जाती है चमड़े के सिक्कों के प्रचलन के मध्य। ऐसा कर्मयोगी आज के मतलबी युग संभावना में सांसे भर रहा है शायद कल का सुबह कुछ अच्छा लेकर आये। इसी संभावना में वह दबा-कुचला हाशियें का आदमी परमार्थ की राह में कुछ ऐसे बीज बो जाता है कि उस बीज से उपजे पौधेां की सांख पर टंगे पुष्प सदा कुसुमित रहते हैं और वृक्ष परोपकार की राह में मील के पत्थर साबित होते हैं,वक्त ऐसे हाशिये के आदमी का गीत गाता है। दबंगता और अभिमान के पोषकों की थू-थू करता रहता है।
दुखद बात याद आ रही है, एक मेरे दूर के जुड़वे भाई जैसे है ,बेचारे उच्च शिक्षित है,देश-दुनिया में मान-सम्मान भी परन्तु दुखद बात ये है कि जिस संस्था में वे अपने जीवन का मधुमास गंवा रहे हैं वही अपमानित है। संस्था में उनके साथ अथवा बाद के आये लोग उंचे ओहदे पा गये पर हमारे दूर के जुड़वे भाई को कोई तरक्की तो नहीं मिली। हां खून के आंसू मिलते रहते हैं। उनका उपभोग काम करने की वाली मशीन की तरह किया जाता है और आनाकानी करने पर दिन में तारे दिखा दिये जाते हैं। वे भले ही कितने उच्चशिक्षित है देश-दुनिया में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है जिस संस्था के हित में जीवन का बसन्त स्वाहा कर रहे हैं वही उपेक्षित है,तरक्की से वंचित है भूले-भटके कोई तरक्की का मौका आ भी जाता है तो वह भी छिन लिया जाता है क्योंकि भारतीय रूढिवादी व्यवस्था में उन्हे श्रेष्ठता हासिल नहीं है सम्भवतः यही कारण है कि तरक्की से वंचित है,इसके बाद भी कर्तव्यनिर्वहन बड़ी लगन,ईमानदारी,वफादारी के साथ कर रहे हैं, यकीनन यही कारण है कि देश-दुनिया उन्हे सराह रही है, मान-सम्मान दे रही हैै परन्तु संस्था को अंगुली पर रखने वालेां की दृष्टि लगन , ईमानदारी ,वफादारी पर जमती नहीं, सच यही चमड़े के सिक्के का प्रचलन कर्मशीलता का दमन और तुगलकी नीति उतान रांैद रही है। हमारे दूर के जुड़वे भाई हैं कि दर्द के विष को पीकर अपने फर्ज पर पक्के है,उनसे पूछो तो कहते हैं भगवान ने अनमोल जीवन दिया है तो एक तपस्वी की तरह क्यों न जी ले विरूद्ध फिंजा में अपने आश्रितों के लिये। वे अन्याय को अन्याय कहने में हिचकते नहीं कहते हैं अंधें और बहरें तुगलकों से मांगने से कुछ नहीं मिलेगा छिन जायेगा। कर्म पर विश्वास भगवान में आस्था दुनिया की हर तरक्की दिला सकती है,यही मेरे दूर के जुड़वे भाई की ख्याति का कारण है।
कहते हैं साधु और पानी को कितना भी रोका जाये रूकते नहीं अगर रूक गये तो अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। जगतकल्याण के लिये इन दोनो का निरन्तर चलते रहना जरूरी है। ऐसे ही भाव होने चाहिये शासकों-प्रशासकों में जो अपने फर्ज पर खरे उतरने का प्रयास भेदभाव से दूर रहकर लोक कल्याण में कार्य करें परन्तु शासक-प्रशासक ही नहीं जनप्रतिनिधि तक स्वहित में अंधे होकर चमड़े के सिक्के चला रहे हैं और कमजोर हाशिये के आदमी का बेखौफ दोहन और दमन कर रहे हैं और बेचारे हाशिये के आदमी की आवाज दिन के उजाले में भी शासकों-प्रशासकों के कान में नहीं पड़ पाती है और चलता रहता घिनौना स्वहित का नंगा खेल कभी जाति की आड़ में तो कभी धर्म की तो कभी प्रान्त और क्ष्ोत्र की आड़ में। पीसता रहता है कमजोर हाशिये का आदमी और विवश रहता है हाड़फोडकर भीं आंसू से रोटी गीली करने के लिये। यह सब अमानवीय घिनौने कृत्य हो रहे हैं तो बस चमड़े के सिक्कांे के बढते वर्जस्व अंधे-बहरे शासकों-प्रशासकों के स्वहित में जीने की वजह से। ऐसे चमड़ें के सिक्के और अंधे-बहरे शासक-प्रशासक भले ही धन के पहाड़ जोड़ ले पर ये देश और आम आदमी का विकास नहीं होने देगें। दुर्भाग्यवस ऐसे चमड़े के सिक्के किस्मत लिख रहे हैं।
दुनिया देख रही है चमड़ें के सिक्कों के प्रचलन से न्यायमंदिर दूषित हो रहे हैं, संसद में मारापीटी जैसी शर्मनाक कार्य तक होने लगे है। इसकी जड़ में कौन सी उर्जा है आज शोध का विषय भी नहीं बचा है जगजाहिर हो गया है-ये सब कुछ स्वहित की गर्ज और भेदभाव से उपजी देश और आम आदमी को तरक्की से दूर रखने का षणयन्त्र ही तो है। यही कारण है कि आजदी के इतने दशकों बाद भी आम आदमी तरक्की से दूर फेंका पड़ा है और। मुखौटाधारी तरक्की के एवरेस्ट पर चढते जा रहे हैं। असली हकदार दूर फेंके पड़े बांट जोह रहे हैंै कि उनका भी जहां रोशन हो पर चमड़े के सिक्कों का चलन आम आदमी की बदनीसीबी का करण बन गया है। यदि हमारे दूर के जुड़वे भाई जैसा कोई व्यक्ति पहुंच भी गया तो जहां से चले थे वहां से आगे बढने नहीं दिया जाता। यदि सपने देखने की गुस्ताखी की तो काले पानी तक की सजा के हकदार बना दिये जाते हैं। डराये धमकाये जाते हैं। चमड़े के सिक्कों के इशारे पर ताताथैया करने की हिदायत दी जाती है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में काम करना कितना कठिन होता होगा ये तो वही जाने जो भुगतभोगी है हमारे दूर के जुड़वे भाई जैसे। सराहनीय बात है कि हमारे दूर के जुड़वे भाई का जिस तरह ईमानदारी से कर्तव्य निवर्हन करते हुए जीवन का मधुमास पतझड़ में तब्दील हो रहा है तरक्की से दूर मौन विरोध कर संस्था से बाहर सभ्य समाज के बीच उच्च आदर्श स्थापित करना फक्र का विषय है खासकर हमारे लिये। चमड़े के सिक्के के प्रचलन कर्मशीलता के दमन की वजह योग्य होकर भी तरक्की बाधित रही। तरक्की से दूर,आंखों में सपने सजााकर , तरक्की की जीवित भूख में सांसे भरते और परिवारिक दायित्वों को पूरा करने के लिये निरन्तर प्रयासरत् चमड़े के सिक्कों के प्रतिघात को झेलते-बचते ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी दुनिया में सम्मान अर्जित करना हमारे दूर के जुड़वे भाई से सीखा जा सकता है परन्तु दबंग और अभिमानी लोग हाशियें के आदमी की विजय को हार कहते नहीं शरमाते क्योंकि उनकी निगाहों में जो वे हाशिये के आदमी के विरूध्द कर रहे हैं आम आदमी की कमाई देश की अस्मिता विदेशी बैंकों में कैद कर फुले नहीं समा रहे हैं। इस देश और जन विरोधी कृतित्व को अपनी फतह मान रहे हैं। आम आदमी की तरक्की दबंग और अभिमानियों को सकून नहीं बेचैन कर देती है और जुट जाते हैं नये षणयन्त्र में ताकि हाशिये का आदमी हाशिये पर ही बना रहे। दुनिया जान चुकी है कि हाशिये का आदमी सम्मानजनक इतिहास रच सकता है ,रचा भी गया है पर इसके लिये हिम्मत जुटानी होगी। अब वक्त आ गया है आम आदमी को इकट्ठा होकर चमड़े के सिक्कों के विरूध्द आवाज बुलन्द करने का अपने हक की मांग करने तभी असली आजादी की अनुभूति निकट से हो सकती है,आदमी होने का असली सुख मिल सकता है वरना ये चमड़े के सिक्के और तुगलकी शासक-प्रशासक आम आदमी और देश हित को डकारते रहेगें चटकारे ले-लेकर। सच तो यह है कि देश-दुनिया में जितनी भी बुराइर्यां व्याप्त है चाहे वे उग्रवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, धर्मवाद क्ष्ोत्रवाद-भाई-भतीजावाद,भ्रष्ट्राचार अथवा कोई और सभ्यसमाज-राष्ट्र विरोधी गतिविधियां सब की उपज के कारण चमडें के सिक्कांे का प्रचलन ही तो है परन्तु ये परजीवी किसी न किसी आंका की आड़ं में हाशिये के आदमी को खून पीते हुए देश की जड़ खोदते रहते हैं। यदि सरकार इन चमड़े के सिक्कों को प्रतिबंन्धित कर दें और आंकाओं को स्वहित से उपर उठकर काम करने की सख्त हिदायते दे दी जाये और उलंघन पर इन आकाओं यानि तुगलकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना प्रारम्भ हो जाये तो चमड़े के सिक्कों का प्रचलन तो बन्द हो ही जायेगा और तुगलक रूपी आका लोग राष्ट्र - मानवहित में काम करने लगेगें। यदि ऐसा नहीं हो तो है सभ्य समाज और आम आदमी अपने हक की मांग पर अड़ जाये तो भी ये चमड़े के सिक्के और तुगलकी शासक-प्रशासक खुद को जन और देश हित में समर्पित कर सकते हैं जो आम आदमी और देश के विकास की दृष्टि से जरूरी है।
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