मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ ,
जहां खेतिहर मज़दूरों की ,
चौखट पर नाचती है
भय-भूख और दरिद्रता आज भी ,
वंचितो की बस्ती अभिशापित है ,
बस्तियों के कुएं का पानी ,
अपवित्र है आज भी ,
भूखा नंगा ब्मज़दूर ना जाने कब से
हाड फोड़ रहा है
ना मिट रही है भूख ना ही ,
तन ढँक पा रहा है ,
कहने को आज़ादी है पर वो ,
बहुत दूर पड़ा है ,
भूमिहीनता के दलदल में खड़ा है ,
भय से आतंकित ,
कल के बारे में कुछ नहीं जानता
आंसू पोंछता आज़ादी कैसी
वह यह भी नहीं जानता ,
वह जानता है
खेत मालिको के खेत में खून पानी करना
मज़बूरी है उसकी
भूख-भय और पीड़ा से मरना
कब सुख की बयार बही है ,उसकी बस्ती में
इतिहास भी नहीं बता सकता सही-सही ,
पीड़ित जन भयभीत जातीय बंटवारे की आग से ,
वह भी सपने देखता है ,
दुनिया के और लोगो की तरह
गांव कही धुप में पाक कर ,
उसके सपनो को पंक नहीं लग पाते ,
उसे भी पता लगाने लगा है
दुनिया की तरक्की का
आदमी के चाँद पर उतर जाने का भी।
वह नहीं लांघ पा रहा है
मज़बूरी की मज़बूत दीवारे ,
वह दीनता को ढोते -ढोते आंसू बोटा हुआ ,
कूंच कर जा रहा है ,अनजाने लोक को
विरासत में भय-भूख और क़र्ज़ छोड़कर ,
अगला जन्म सुखी हो
डाल देते है परिजन मुंह में गंगाजल
मुक्ति की आस में ,
दरिद्रनारायण को गुहारकर ,
मैं भी माथा ठोंक लेता हूँ
पूछता हूँ क्या यही तेरी खुदाई है ....?
क्या इनका कभी उध्दार होगा … ?
सच मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ
जहां अनेकों आँसू पीकर ,
बसर कर रहे है आज भी। ..........
डॉ नन्द लाल भारती
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