(शोषित मज़दूरो के लिए )
किस्मत को क्यों ,दोष दे रहा ज़माना ,
याद नहीं जमाने को हक़ हजम कर जाना।
साजिशो की हिस्सा है मेरी मक्बूरियां ,
पी लेता हूँ ये विष ,कस लेता हूँ तन्हाईयाँ।
रार नहीं ठानता मैं ,खैरात चाहता ही नहीं ,
हाड को निचोड़कर दम भर लेता हूँ तभी।
हाड खुद का निचोड़ना आता नहीं ,
सच तब ये दुनिया वाले जीने देते नहीं।
सरेआम सौदा होता जहां चाहते बेचते वही
खुदा का शुक्र है मज़दूर होकर रह गए ,
खुद ना बिके श्रम बेचकर जी गए।
जमाने से रंज नहीं तो फक्र कैसा ,
जमाने की चकाचौंध में जी लेता हूँ ,
दीन होकर भी दीन दयाल जैसा।
हसरतों के दामन घाव मिले
मैं कसूरवार नहीं ,
हमने लहू को पानी बनाकर सींचा
कर्म की क्यारी क्यारी ,छल मिले ,
प्रतिफल की जगह ,
मुझे हकदार दम्भियों ने माना ही नहीं।
डॉ नन्द लाल भारती
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY