मुस्कराने की लालसा लिए ,
दर-दर भटक रहा हूँ।
हाल ए दिल बयान करने को ,
तरस रहा हूँ।
दर्द आंकने वाला ,
नहीं मिल रहा कोई ।
दर्द नाशक के बहाने ,
रची जाती साजिशें कोई न कोई।
यहाँ रात के अँधेरे में
अटटहास करता डर है।
दिन के उजाले में बसा खौफ है।
रक्त रंजित दुनिया के ,
आदी हो रहे ,
कही आदमी तो कही ,
आदमियत के क़त्ल हो रहे।
दर्द के पहाड़ तले दबा ,
ख्वाहिशो को हवा दे रहा ,
आतंक से सहमा ,
सर्द कोहरे से छन रही
धूप का जश्न मनाने से डर रहा ……………।
डॉ नन्द लाल भारती
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