आदमी के रूप में फरिस्तों
क्यों नहीं पहचान रहे ,
खुद को ,
क्यों खून के आंसू दे रहे ,
दीन को।
तुम्हारा तन वतन है ,
खुद का ,
क्यों नहीं ध्यान नाम खुद का।
क्यों मिटा रहे
खुद के निशान आज ,
संवार डालो ,
जिनके बिगड़े हैं आज।
तुम सदा मुस्कराते,
रह जाओगे
खुद को दीन -दुखिओं के ,
बीच पाओगे।
डॉ नन्द लाल भारती
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