हाशिये के लोग क्या
कभी फतह कर पाएंगे
अपनी मुश्किलों पर
सदियों से जो पीस रहे हैं
मुसीबत की चाकी में
विधान है संविधान है
लोग अपने ही
शासक प्रशासक हैं
फिर भी दूर चले जा रहे है
अच्छे दिन
ऐसी मुसीबत की बेला में
कैसे फिरेगे दिन
कैसे मिटेगा निर्धनता
अशिक्षा, भूमिहीनता, असमानता
जब तक ये नरपिशाच है
यक़ीनन तब तक
हाशिये के आदमी के सिर पर
मुसीबत का बोझ
पांव के नीचे तेज़ाब का दरिया
कितना मुश्किल जीवन होगा
ऐसे फतह कैसे
सामाजिक आर्थिक मुसीबतों पर
फतह के लिए तो आने चाहिए
अच्छे दिन
यही कथनी और करनी का फर्क
नज़र आ जाता है
दूर और दूर होते चले जाते है
अच्छे दिन
उम्मीद की भरपूर सांस पीकर
हाशिये का आदमी
जुट जाता है
फतह के लिये हर बार
नाउम्मीदी के बाद।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
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