ये वही चौकी (खैरा)आज़मगढ़ का
गांव है जो मेरी जन्मभूमि है
मुझे अपनी जन्मभूमि पर गर्व है
चौकी से
लालगंज तक जाने के लिए
खेतों की मेड़ो और पगडंडियों से जाना पड़ता था
हॉट से सामान की गठरी सिर पर
साइकिल वाले साइकिल पर लाते थे
मैं सिर पर और साइकिल पर भी लाया हूँ
अब हाईवे है मोटरें भी
इतनी तरक़्क़ी हुई है
इसके अलावा चौकी
तुम्हारी और कोई है पहचान
ग़रीबी और अमीरी के बीच कोई
जंग नहीं हुआ,
क्या दमन कहें या शान
तुम्हारी साख और गिर गयी
हल खूंटी पर टंग गए
बैल कसाई घर पहुंच रहे हैं
बची है तो सिसकती ज़िन्दगी
और गांव के दो टुकड़े
पूरब की तरफ सवर्ण और
पश्चिम की तरफ संघंर्षरत
झंखते श्रम के सिपाही दलित
ना जाने क्यों दलितों की बस्ती में
ना सरकारी अफसर, ना नेता
न अभिनेता पैदा होते है
पैदावार रुकी नहीं है
पैदा हो रहे है अभावग्रस्त
दारू, गांजा, बीड़ी,कैंसर की दुकान सुर्ती की
लत से लैस मजदूर
चौकी गांव के शोषितों की
यही तेरी दर्द भरी कहानी है
जहां नही बनती कोई सुनहरी निशानी है
हाशिये के आदमी के अरमानों पर
गिर रहा ओला पानी है
चौकी गांव तुम आज भी
रुके पानी की तरह क्यों हो
भूमि आवंटन से वंचित
लहूलुहान,दर्द रंजित हो
चौकी तुम्हारी पहचान क्या है ?
तुमने आग में मूतने वालों
आकाश पर थूकने वालो को देखा होगा
दलितों की बस्ती से उठी
कराह को भी सुना होगा
जाने क्यों समता की क्रांति का
बिगुल नहीं बजाया तुमने
चौकी अब तो करवट बदलो
तरक़्क़ी की बयार आने दो
शिक्षा -अर्थ की राह पर
हाशिये के लोगों को पांव जमाने दो
चौकी गांव ना तुम कोलकाता हो
ना मुम्बई हो
हाशिये के आदमी की तरक़्क़ी के बिना
कुछ नहीं हो तुम
चौकी तुम हमारी जन्मभूमि हो
तुम्हारी मांटी हमारे लिए चन्दन है
चौकी गांव तुम्हारा अभिनंदन है।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
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