कविता : घूँघट
घूँघट एक परम्परा
जहमत मुसीबत
या छांव
क्या सच ?
शायद एक परम्परा
और
औपचारिकता
मिनट भर मे
कई रुप
औपचारिकता का क्या
औचित्य
सडा़ध मारती
बूढ़ी-कुबड़ी का
त्याग क्यों नहीं
घुघट....शर्मो हया का
पुख्ता प्रमाण नही
नकाब कोई ताज नहीं
माथे का पल्लू
गर हो करने से
मान झलकता है
बिना हाथ भर के
घूँघट के
सम्मान मिलता है
घुघट ........
औपचारिकता है
महज मजबूरी
अथवा बूढ़ी परम्परा का
महज दिखावा
टांग दो
घूँघट को ऐसे
दीवार की घूंटी पर
ओढ लो
हया की अदृश्य चादर
बिना घूँघट के
कर दे इजाफा
मान-सम्मान मे
हया हो पुलकित
रिश्ते हो कुसुमित
टांग दो घूँघट
ओढ लो हया की
निश्छल चादर
बो दो रिश्ते मे अमृत
याद रखो
नारी का सम्मान
पुरूष का मान है
नारी ......
वैभव परिवार का
स्वाभिमान है
स्वाभिमान रहे
पुलकित
रिश्ता रहे
कुसुमित
घूँघट बन गया
मुसीबत गर
टांग दो खूंटी टर
ओढ लो मर्यादा की
कोरी चादर.......
पा लो सम्मान गगन भर
बिछा दो नेह का
निश्छल अपनापन
अपनी जहाँ भर...........
डां नन्द लाल भारती
24/09/2021
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