Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हिन्दी भारतीय जीवन मूल्यों की संवाहक है

 

 

जैसाकि हम मानते है हिन्दी हमारी मातृाभषा है,राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा है,आजादी की भाषा है,जन-जन की भाषा है आम आदमी की भाषा है,राष्ट्रीय एकता विश्वबन्धुत्व की भाषा हिन्दी है परन्तु संवैधानिक रूप हिन्दी को आज भी पूर्णतः न राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है और नही राजभाषा का।यह हिन्दी का दुर्भाग्य नहीं देश और देशवासियों का दुर्भाग्य है। यदि देश और देशवासियों का दुर्भाग्य न होता तो क्या हम आजादी 67 के बाद भी हम आजाद देश में बिना हिन्दी राष्ट्रभाषा के सांस भर रहे है। यह वही हिन्दी है जिसे भारतवासी आजादी की भाषा कहते हैं,राष्ट्रीय एकता की भाषा कहते है परन्तु आजादी के 67 साल के बाद भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पूर्णतः दर्जा नही प्राप्त हो सका है। हिन्दी को पूर्णतः राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा का दर्जा नही प्रदान किया जाना राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी ही का द्योतक है। ये कैसी आजादी है,कैसी राजनैतिक मजबूरियंा है आजाद भारती की अपनी न तो पूर्णतः मान्य राजभाषा है न राष्ट्रभाषा। न्यायालयीन कार्य अग्रंजी में होते है।बैंक पासुबुक,बीमा की नियमावलियां,सरकारी आदेश इत्यादि अंग्रेजी में पढ़ने और समझने को मिलता है।बीमा कम्पनियों के प्रतिनिधि दो चार अच्छाई बताकी हसताक्षर करवा लेते है,बाद में पता लगता है कि हम ठगे गये। यदि सभी दस्तावेज हिन्दी में उपलब्ध होगे तो आमआदमी पूरी तरह पढकर आश्वस्त होकर निर्णय ले सकता है।

भले ही हम 21वीं ‘ाताब्दी में जी रहे है आज भी देश में निरक्षरों की संख्या कम नही है,कुछ प्रतिशत लोग तो बस हस्ताक्षर ही करना सीख पाये है,दुर्भाग्यवया वे भी शिक्षित की श्रेणी में माने जाते है। ऐसे देश में अंग्रेजी में काम करने और अंग्रेजी को बढावा देने का औचित्य क्या ? जबकि आमआदमी और देश की आत्मा की आवाज हिन्दी में काम किया जाना चाहिये हिन्दी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। स्वतन्त्र भारत में हिन्दी उपेक्षा की शिकार है,इसके लिये हमारी सरकार जिम्मेदार है। केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोगावश खानापूर्ति होकर रह गया है। केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ले से हो रहा है, जबकि ऐसा नही होना चाहिये था क्योंकि राजभाषा का सम्बन्ध तो प्रशासन और प्रशासकवर्ग से है।इसका प्रयोग मुख्यतः चार क्षेत्रों अर्थात- ‘ाासन,विधान,न्यायपालिका और कार्यपालिका में अपेक्षित है परन्तु हमारे देश में ‘ाासन और प्रशासन की भाषा अंग्रेजी है। आजादी के 67 साल के बाद भी हिन्दी न तो पूर्णतः राजभाषा और न ही राष्ट्रभाषा का सम्मानित स्थान प्राप्त कर पायी है तो अंग्रेजी के चक्रव्यूह के टूटने की बात कैसी की जाये।‘ाासन और प्रशासन में ईमानदारी से राजभाषा हिन्दी का प्रयोग नही होने से देश में भ्रष्ट्राचार और घोटाले फलफूल रहे है।

देश के सामाजिक र्आिर्थक ही नही राजनैतिक विकास में देश की भाषा सेतु का काम करती है। अब वक्त आ गया है हिन्दी को उपेक्षा से बचाने के लिये इसे रोजगोर से जोड़े जाने का प्रयास किया जाये कई देश है जहां अंग्रेजी को तवज्जो नही दी जाता है इसके बाद भी वे देश सामथ्र्यवान और पूर्णतः विकसित है तो भारत में अंग्रेंजी की बाध्यता क्यों ?देश को विकसित बनाना है तो इसके लिये जरूरी होगा कि ‘ौक्षणिक एवं प्रशिक्षण संस्थानों को में शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो ‘ाासन-प्रशासन हिन्दी के प्रयोग को लेकर ईमानदारी बरते। इसके लिये भारत सरकार ने प्रयास तो किये है जो हिन्दी को देश की राजभाषा के रूप में विकसित करने के लिये जरूरी थे परन्तु नीयति में ‘ाुद्धता नही होने के कारण संवैधानिक नियमों के होने के बाद भी प्रयास सफल नही हो पाये है।

हिन्दी को लेकर मान्यता है कि हिन्दी में पढ़ने से पांच गुना क्षमता बढ़ जाती है। एक समय था जब यात्रा के दौरान किताबे पढ़ना सुसभ्य एवं प्रतिभा की द्याोतक हुआ करती था परन्तु आज हिन्दी उपन्यास,कहानी कविता एववं अन्य किताबों से लोग दूर जा रहे है यही कारण है कि आज संस्कारहीनता का दौर ‘ाुरू हो गया है। इसे हिन्दी की उपेक्षा से जोड़कर देखा जाना चाहिये। चीन जैसे देश में हिन्दी लोकप्िरय हो रही है और हमारे देश में उपेक्षा की शिकार ये कैसी विडम्बना है। जाहिर होता है कि हिन्दी हिन्दी के लेखक और हिन्दी पुस्तकें सरकारी उपेक्षा की भी शिकार है,हिन्दी का प्रचार-प्रसार व्यापक पैमाने पर नही हो रहा है। चीन-सचिन चीन की हिन्दी पत्रिका है,जिसकी स्थापना 1957 में की गयी थी चीन-सचिन पत्रिका के माध्यम से भारतीय जनता को चीन की जानकारियां दी जाती है। इसमें चीन भारत के बीच ऐतिहासिक साहित्यिक संास्कृतिक जानकारी आदान प्रदान की जाती है। पेइचिंग विश्वविद्यालय के हिन्दी में विभाग में प्रवेश देने के लिये हिन्दी सीखाई पढाई जाती है।यहीं बी.ए.एमए एंव पीएचडी के के अध्ययन की विधिवत् व्यवस्था है। ऐसे ही दुनिय के अन्य देशो में भी हिन्दी में पठन-पाठन कार्य हो रहा है वहां की युवा पीढ़ी हिन्दी की तरफ आर्कर्रिूत हो रही है परन्तु अपने देश में हिन्दी उपेक्षा का शिकार हो रही है इसका एक ही कारण उभरकर सामने आता है वह यह है कि ‘ाासन एंव प्रशासन वर्ग हिन्दी के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन जिम्मेदारी से नही कर रहा है। यह वर्ग कही ना कही किसी ना किसी रूप राजनैतिक सत्ता से पोषित है। राजनैतिक सत्ता ने अपनी ‘ाक्तियों को प्रयोग किया होता तो हिन्दी देश की पूर्णतः राजभाषा और राष्ट्रभाषा होता। अब राजनैतिक सत्ता को राजभाषा एवं राष्ट्रभषा की अत्यन्त आवश्यकता महसूस होने लगी है क्योकि राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा ऐतिहासिक साहित्यिक संास्कृतिक सद्परम्पराओं और जीवन मूल्यों की संवाहक होती है,संरक्षित और सुरक्षित रखती हैं।

जैसाकि हम जानते है भाषा किसी राष्ट्र की साहित्य,संस्कृति परम्पराओं और जीवन मूल्यों की संवाहक होती है,इसलिये आवश्यक होता है कि राष्ट्र अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये भाषा को सुरक्षित और संरक्षित रखता है।भाषा के समाप्त हाने की स्थिति में देश की पहचान समाप्त होने का खतरा रहता है। हमारे साहित्य संस्कृति आधुनिक युग में सुरक्षित है सिर्फ इसलिये क्योंकि ये हामरी अपनी भाषा में व्यक्त किये गये है।भाषा के महत्व को हमारे पूर्वजो ने बहुत पहले समझ लिया था।आजादी के आन्दोलन में पूरा भारत एक था उसकी वजह थी हिन्दी भाषा।भारतवासियों ने एकजुट होकर हिन्दी को स्वीकार किया अन्ततःयह एकता काम आयी आजादी की भाषा हिन्दी बनीं। देश में राष्ट्रभाषा हिन्दी के अलावा और भी अनेक भाषा राज्य स्तर पर क्षेत्रीय स्तर पर प्रचलित है-उदाहरण के लिये मराठी गुजराती तमिल,पंजाबी,भोजपुरी एवं अन्य परन्तु राष्ट्रचिन्तकों ने भाषा और धर्म भेद दरकिनार कर राष्ट्रहित में हिन्दी को प्राथमिकता दिया। देश को आजादी मिली हिन्दी को संघ की भाषा बना दिया गया। इसके बाद राजभाषाअधिनिय,राजभाषा नियम और संकल्प बनाये गये। गृह मन्त्रालय के अन्र्तगत राजभाषा विभाग की स्थापना हुई,हिन्दी का सरकारी कार्यालयों में में प्रयोग बढाने के लिये प्रयास किया गया इसके बाद भी राजभाषा के कार्यान्वयन में पूर्ण सफलता नही मिल पायी है। ऐसा नही कि पूर्णतः सफलता नही मिलेगी अवश्य मिलेगी।हमें अपने और राष्ट्र के भविष्य के प्रति सचेत होना है जब हम अपने सम्वृद्ध साहित्य संसक्ुति भारतीय आघ्यत्मिक दर्शन और जीवनमूल्यों की गहराई को समझेगे तब हमें इनका महत्व समझ में आयेगा कि ये सदियों के अनुभव साधाना और ज्ञान पर आधारित जीवन दर्शन हमारी भाषा से मिले हैै जो हिन्दी है। वर्तमान को देखते हुए हमें हिन्दी के प्रति स्वाभिमानी बनने की जरूरत है,हम अपने स्तर पर हिन्दी में कार्य करें, अपने दायित्वों पर स्वयं की दृष्टि से खरे उतरें,हम अपनी बात हिन्दी में करें,हिन्दी में लिखे-पढ़े हिन्दी का अधिकतम् प्रयोग करें तभी हामरा देश तरक्की कर पायेगा अन्यथा अंग्रेजी के मद में हम अपनी सभ्यता-संस्कृति सामाजिकसरोकारों से हाथ धो बैठेगे। बदलते हुए युग में हमें हिन्दी के प्रति उत्तरदायही होना होगा,हिन्दी के संरक्षण के प्रति जागरूक होना तभी हिन्दी राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा का पूर्णतः दर्जा प्राप्त कर पायेगी यकीनन यह हमारे स्वाभिमान की अभिवृद्धि होगी क्योकि हिन्दी भारतीय जीवन मूल्यों की संवाहक है।

 

 

 

डां.नन्दलाल भारती

 

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