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इंदौल अपने घल

 
इंदौल अपने घल
देखो देवी जी, मोबाइल घनघना रही है।
फोन उठाते ही,हेलो मम्मी क्या कर रहे हो।
क्या करुंगी। बैठीं हूं।
बैठी हो या हो रही हो।
बेटा तुम बताओ। इतने में बाबू झट से फोन लेकर बोला हेलो बुआ।
बुआ नहीं है, चाचा है।

हेलो चाचा मैं दादा-दादी के साथ इंदौर आऊंगा ऐरोप्लेन में बैठकर। बाबू जब से  सांस भरना शुरू किया किसी खून के सगे रिश्तेदार की परछाई नहीं पड़ पायी,ठग-लालची नाना-नानी के सख्त जेल और जेलर  मां के सामने कोई नहीं टिक पाया। बाप पत्नी पीड़ित होकर नौकरी और घर के कामों में सिमट कर रह गया। बाप ही मां का फर्ज अदा कर रहा था। जन्म के छः साल बाद  दादा-दादी की पहली नजदीकि मुलाकात थी।

बाबू दो दिन में इतना हिल मिल गया था, जैसे बहुत पहले से जानता था। बाबू बुआ, चाचा, दादा-दादी और सभी सगे रिश्तेदारों से पूर्व से परिचित था, जबकि कभी किसी को नहीं देखा पाया था।

बाबू की बातें सुनकर दादा की आंखें भर आईं, दादी के आंखों के बांध तो टूट ही गये। दादा ने बाबू को गोद में बैठा कर पूछा?
बाबू चाचा को कैसे पहचानते हो। किसने सबके बारे में बताया है।
किसी ने नहीं दादा। मैं दिमाग लगाता हूं। बाबू की बातें सुनकर कर इतने खुश हुए कि उन्हें भरी दोपहरी में इन्द्रधनुष नजर आने लगा।

दादी झट से बाबू को गोद में छिपाते हुए बोली मेरे खानदान के चिराग को अब किसी अमानुष की नज़र न लगे।
ठगों-डकैतों और लगा लो पहरे दादाजी विहसते हुए बोले।
बाबू दादा के कंधे पर चढ़ते हुए बोला चलो दादाजी।
कहां चले बाबू ?
इंदौल अपने घर एऐलोपलेन में बैठकर।
नन्दलाल भारती 
२७/०८/२०२४ 


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