खाईयों को देखकर घबराने ,
लगा हूँ ,
अपनो की भीड़ में ,
पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ।
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता हूँ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है ,
भयभीत हूँ सदियों से ,
इस जहां में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मई घबरा गया हूँ,
विषधारा से।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढ़ी व्यस्था के आईने में
हाशिये पर पाता हूँ..
बार-बार दिल पुकारता है ,
तोड़ दो ऐसा आईना जो ,
चहरे को कुरूप दिखता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के जीवन में
जंग जो है।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ ,
बढ़ने लगता हूँ ,
परिवर्तन की राह ,
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल के इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ।
डॉ नन्द लाल भारती
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