Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

जमा पूँजी

 

 

उम्र की जमा पूँजी ,
मुट्ठी में बंद रेत की तरह ,
सरके जा रही ,
मिनट ,घंटा,दिन,महीना ,
साल तक पहुँच रही .....
ये दुखती दास्ताँ
हर किसी के साथ ,
दोहराई जा रही ,……
वाह रे अपनी जहाँ के
भ्रम में फंसे लोग ,
नहीं पसीज रहा जिगर
नफ़रत की खेती बढती जा रही…
टूट -टूट खंड-खंड बिखर गए ,
दबे कुचलो को दंड मिल रहा ,
हाय रे जाति -धर्म की अफीम ,
नशा जालिम कम ही,
नहीं हो रही………
अपनी जहां वालो ,
हिम्मत करो कह दो अलविदा ,
मानवीय समानता के पथ चल दो
अपनी जहां भ्रम है
पल-पल उम्र की जमा पूँजी ,
सरकती जा रही ,
जाति -भेद नफ़रत की खेती ,
बंद क्यों नही हो रही …………

 

 

 

डॉ नन्द लाल भारती

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ