गाँव कहने को तो देश दुनिया की
जन्नत है
गाँव ही तो वह द्वार है
जहा सूरज की पहली किरण
दस्तकत देती है
सब बौना लगता है
अपने गाँव की असली तस्वीर के आगे
अपना गाँव आज भी दबा पड़ा है
भूमिहीनता से भय और भूख से
दबंगों के गाँव समाज की
जमीन के अवैध कब्जे से
और छुआछूत की असाध्य बीमारी से
वार्णिक मोहल्ले की सीमायें
दुश्मन देश की सीमायें बनी हुई है
ना धर्म -ना समाज के पहरेदार
ना सरकार फिक्रमंद है
भलीभांति गोटी बिठाना सीख गए है जो
अभिशाप बन गया है यही
आदमी अछूत हो गया है
तरक्की से दूर हो गया है
सरकार धर्म -समाज के पहरेदार
बरते होते ईमानदारी
समपन्नता-बहुधर्मी सद्भवाना
और सवा-धर्मी समानता
जरुर कुसुमित हो गयी होती
बढ़ने लगे होते हाथ
ऊपर से नीचे की ओर
निम्न वार्णिक ना होता
शोषण अत्याचार का शिकार
ना उपजता नित नया अविश्वास
अपना भी गाँव बना रहता जन्नत
ना होता पलायन
गाँव में बने रहने की
माँगी जाती मन्नत ..................
नन्द लाल भारती
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